ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
द्वारकादास ने तब जेब से एक सुन्दर इत्र की शीशी निकाल के नीरा को उपहार के रूप में दी थी। इत्र की भीनी सुगन्ध उसकी वासना को उत्तेजित रखती थी, इसलिए नीरा के लिए वह आज सबसे बहुमूल्य इत्र लाया था, यह शीशी नीरा को थमाते हुए उसने धीरे से कहा—
‘ठीक है नीरू, ऐसा ही होगा, किन्तु यह रात जब हमारी अन्तिम रात है तो एक स्मरणीय रात होनी चाहिये…सबसे मधुर सबसे सुन्दर।’ और यह कहकर वह नीरा के गालों को छूकर चला आया।
बिस्तर पर लेटे-लेटे द्वारकादास को शाम की हर बात याद आ गई। नीरा के इत्र में बसे हुए सुगन्धित शरीर का ध्यान आते ही वह रोमांचित हो गया और मन-ही-मन कह उठा, ‘नीरू, यदि तुम्हारी अन्तिम रात इतनी आनन्दमय और रंगीन हुई तो मैं अभी कई बार यह अन्तिम रात मनाऊंगा।’
कुछ सोचकर वह फिर बिस्तर से उठा और आलमारी के पास जाकर उसने तेज शराब का एक और जाम लुढ़काया और फिर बड़े दर्पण के सामने साइड लैम्प जलाकर गर्व से अपना चेहरा देखने लगा। उसमें और किसी नवयुवक में क्या अन्तर था। उसने खिजाब लगी मूछों को बल दिया और मेज पर रखी इत्र की शीशी से जालीदार कुर्ते पर इत्र छिड़ककर गुनगुनाने लगा, ‘अभी तो मैं जवान हूं।’
एकाएक दीवार के साथ लगे क्लॉक ने एक घंटा बजाया और द्वारकादास झट लैम्प बुझाकर बिस्तर पर आकर लेट गया। उसके दिल की धड़कन तेज हो गई और वह उठकर उस किवाड़ की ओर देखने लगा जो नीरा के कमरे में खुलती थी। नीरा ने आज उसे अपने कमरे में आने की मनाही कर दी थी, उस कमरे में उसके पारस की याद थी, शायद इसीलिए…आज वह स्वयं चलकर उसके कमरे में आने वाली थी…बिल्कुल वैसे जैसे वर्षों पहले एक अधखिली कली के रूप में ऐसी ही तूफानी रात में उसके बिस्तर पर आ घुसी थी…वह श्रीगणेश था इस अनोखे प्रेम का जो द्वारकादास में तो प्रतिदिन बढ़ता गया किन्तु नीरा में उसकी ज्वाला मंद पड़ती गई और अब पारस के आने पर बिल्कुल बुझ गई।
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