ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘कैसा स्वर्ग?’ नीरा ने पूछा।
‘स्वर्ग ही, स्वर्ग, नीरू, हमारे प्यार का स्वर्ग, जहां रस है—माधुर्य है, सौन्दर्य है, कोमलता है…जहां रंगीन रातों और प्यार की बातों के अतिरिक्त कुछ नहीं।’
नीरा कुछ देर उसे देखती रही और फिर उसने धीरे से कहा—
‘अंकल! क्या यह संभव नहीं कि यह रात हमारी अंतिम रात हो।’ यह कहते हुए उसके स्वर में एक गंभीर वेदना थी जिसे द्वारकादास ने अनुभव किया।
‘अन्तिम रात…?’ प्रश्नसूचक दृष्टि से उसने नीरा की ओर देखा।
‘प्रत्येक लड़की के जीवन में एक रात आती है, उसकी उत्तम रात…पहली रात, जब वह अपने प्रीतम को प्रेम का वचन देती है, जब वह एक जीवन से दूसरे में प्रवेश करती है…वे दोनों परस्पर अपनी सर्वस्व एक-दूसरे पर न्यौछावर करने की शपथ उठाते हैं।’
‘तो…?’ द्वारकादास ने ध्यानपूर्वक उसे देखते हुए पूछा था। वह अभी तक इस गहराई तक न पहुंचा था कि उसका यह कहने से अभिप्राय क्या था।
कुछ रुककर नीरा फिर बोली—
‘वह पहली मधुमय रात तो आपकी नीरा के जीवन में न आ सकी। हां यह अन्तिम रात…इसे भी वैसा ही रंगीन बनाया जा सकता है।
‘मैं समझा नहीं।’
‘आज जी भरकर मेरे यौवन की बहार लूट लीजिए…भरसक आनन्द उठाएं मेरे कोमल शरीर से…हां, इसी रात में सौन्दर्य की पूरी गरिमा अपने भीतर भर लीजिए…इन होंठों में बढ़ती हुई मदिरा की एक-एक बूंद अपने होंठों द्वारा निचोड़ लीजिए जिससे आपकी प्यास सदा के लिए बुझ जाए…सदा के लिए…और फिर मुझे छोड़ दीजिए…स्वतन्त्र कर दीजिए मुझे।’
नीरा ने अपनी विवशता, अपनी पीड़ा, वेदना इन चन्द शब्दों में उस पर प्रकट कर दी थी, किन्तु वासना की ज्वाला में द्वारकादास इस बात के रहस्य तक न पहुंच पाया। मन की पीड़ा से आज नीरा का फूल-सा चेहरा मानो जल रहा था, द्वारकादास की वासनामयी दृष्टि ने पहले न देखा था…वह लोभी भंवरे के समान इस फूल का नया रंग, इसका नया रस चखना चाहता था, उसकी दृष्टि निरन्तर नीरा के अंगों की रेखाओं पर थीं, उसके वक्ष पर, उसके समस्त यौवन पर।
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