ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
वह कुर्सी से उठा और अलमारी खोलकर उसने बोतल से व्हिस्की गिलास में उड़ेली और एक ही घूंट में गटागट पी गया, नशे ने उसकी भय की भावना को शिथिल बना दिया, उसकी व्याकुलता प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता था उस पर एक-एक क्षण भारी होता जाता था, व्हिस्की ने उसे और उत्तेजित कर दिया। कुछ सोचकर वह उस बीच वाले द्वार के पास आकर खड़ा हो गया और धीरे-धीरे धकेलकर खोलना चाहा किन्तु उसका हाथ वहीं रुक गया। उसने सोचा शायद अभी निश्चित समय नहीं आया, थोड़ी प्रतीक्षा और करनी चाहिये। उसे अपनी व्यग्रता पर स्वयं हंसी आ गई और वह झूमता हुआ आकर अपने बिस्तर पर लेट गया।
बाहर तूफान बढ़ता जा रहा था और भीतर द्वारकादास के मस्तिष्क में यह बवंडर फट रहा था, उभरे हुए भाव उसके अधिकार से निकलना चाहते थे। नीरा की विवशता का विचार करके वह मुस्करा पड़ा, उसे उस पर तरस भी आया किन्तु ऐसा ही जैसे किसी शिकारी को पक्षी पर बन्दूक उठाने से पहले तरस आता है और दूसरे ही क्षण गोली फड़फड़ाते हुए पक्षी के सीने से पार हो जाती है।
शाम को वह नीरा के कमरे में इस मधुर रात का वचन लेने के लिए गया तो नीरा अपने विचारों में इतनी डूबी हुई थी कि उसे पता भी न चला कि वह कब से उसके सम्मुख खड़ा उसे निहारे जा रहा था। उसके मस्तिष्क में क्या संघर्ष हो रहा होगा, इसकी द्वारकादास को चिन्ता न थी, उसे क्या कि फूल पर क्या बीते, क्या न बीते। उसने धीरे से नीरू को पुकारा—
‘नीरू।’
‘हूं?’…नीरा अपने विचारों में खोई सहसा चौंक उठी थी।
‘बैठी क्या सोच रही हो?’
‘एक अनोखी बात।’
‘क्या?’
‘एक पाप और सही।’ नीरा ने बिना किसी भाव से कहा था।
‘अर्थात्।’ द्वारकादास भवें तानकर उसके पास बैठ गया था।
‘उन काली पाप की रातों में एक रात और जोड़ लूं, आपकी प्रसन्नता के लिए, आपके जीवन के लिए।’
‘फिर वही बच्चों की सी बात, जीवन बड़ा सुन्दर है। उसे ऐसे कुविचारों की भेंट न करो…सामने स्वर्ग के द्वार खुल रहे हैं, उन्हं क्यों बंद करती हो नीरा…देखो प्यार की घड़ियां बड़ी संक्षिप्त हैं।
द्वारकादास ने उसे निराशा के घने बादलों से निकालने का प्रयत्न किया था।
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