ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
१४
रात घनी अंधेरी थी। हवा के झोंके उसे और भयानक बना रहे थे। द्वारकादास अपने कमरे में आराम कुर्सी पर बैठा खिड़की में से बढ़ते हुए तूफान को देख रहा था। किन्तु, वह इस बवंडर से तनिक भयभीत न था। ज्यों-ज्यों वातावरण अन्धकारमय होता जाता त्यों-त्यों उसकी धमनियों में एक ज्वाला-सी फड़कती जाती। वासना-पूर्ति के लिए रात बुरी न थी, उसे ऐसी कई रातें याद आ गयीं जब नीरा बिजली की कड़क से डरकर स्वयं उसकी छाती से लिपट जाती थी, वे आनन्दमय रातें, ऐसी ही एक रात थी जब प्रथम बार उसने नव खिले फूल का स्पर्श किया था, उसके प्यार की पहली रात, वह बैठे-बैठे मन में प्रार्थना कर रहा था कि वह तूफान इतना बढ़े कि उसकी भावनाएं बाह्य जीवन की सूक्ष्मता को बिसरा दें बिल्कुल बिसरा दें।
कमरे के धुंधले प्रकाश में वह बार-बार आंख फाड़कर उस द्वार को देख लेता जो नीरा के शयन-गृह में खुलता था। नीरा ने आज स्वयं सज-संवरकर आधी रात के बाद उसके पास, उसके कमरे में, उसकी सेज पर आने के वचन दिया। वह रात कितनी तड़पती हुई रातों के बाद आई थी, वह सुहावनी रात, यह नशीली रात, उसकी कल्पना ही उसे विभोर करने के लिए पर्याप्त थी, वह व्याकुलता से उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था जब वह एकाएक आकर उसके सामने खड़ी हो जाएगी और फिर मुस्कराकर उससे लिपट जाएगी उसके अंगों में छिप जाएगी, नारी के कोमल अंग एक धुनष समान, लहराते हुए बादल के गले लग जाएगी, यह सोच कर वह मुस्कराने लगा।
दूर अचानक बिजली ने चमककर घने बादलों के सीने में तेज चमचमाता हुआ खंजर पार कर दिया। द्वारकादास की गुदगुदाहट तुरन्त गंभीरता में परिवर्तित हो गई। एक डर-सा उसके दिल की धड़कन में मिल गया, मानो उसका पाप फन उठाकर उसके सम्मुख आ गया हो निगलने के लिए।
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