ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘तो क्या मुझे विश्वास करना चाहिये कि तुम मेरी हो।’
‘वह कब न थी, किसी की बनना चाहा किन्तु भाग्य ने साथ न दिया, आपको अच्छा न लगा, भगवान को शायद यह अच्छा न लगा।’
‘ऐसा न कहो नीरू।’ द्वारकादास उसके कंधों पर हाथ रखते हुए बोला।
‘आपसे मुझे शिकायत नहीं। किसी पर दोष नहीं धरती मैं, यह स्वयं मेरे पापों का फल है।’
‘मैं तुम्हारे बिखरे विचारों को फिर एकत्र कर दूंगा—उनमें फिर प्रेम भरूंगा, मैं तुम पर प्राण न्यौछावर कर दूंगा, मेरे गम का सत्कार करो, नीरू मेरी अपनी नीरू।’ यह कहते हुए द्वारकादास ने सेफ से जाकर उन कागजों को निकाला और नीरा के सामने ही उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। नीरा की आंखों से निरन्तर बहते आंसुओं को अपने रूमाल से पोंछा और फिर अपना गाल उसके कपोल से स्पर्श करते हुए नम्रता से कहा—
‘नीरू, मेरी प्राणों से प्रिय नीरू, तुम्हारे बिना जीवन मृत्यु के समान था, तुमने मुझे इस असमय की मृत्यु से बचा लिया है, भगवान तुम्हें प्रसन्न रखे।’
द्वारकादास ने यह कहकर उसके होंठों से अपने होंठ भिड़ा दिए—नीरा ने कोई हलचल न की और यों पथराई आंखों से उसे देखती चुपचाप खड़ी रही मानो वह कोई पत्थर की मूर्ति हो।
‘उसे विश्वास दिलाने के लिए द्वारकादास ने उसी समय अपने मालाबार के जंगल के दफ्तर से ट्रंककॉल मिलाई और टेलीफोन पर ही पारस को वापस लौट आने का आदेश किया। पारस से फोन पर बात करते हुए उसने नीरा की कुशलता की भी सूचना दी और कहा कि वह उसके समीप ही खड़ी है। यह कहकर उसने रिसीवर नीरा के हाथ में थमा दिया कि वह स्वयं उससे बात कर ले।
नीरा ने कांपते हाथों से रिसीवर लिया और उसकी आवाज सुनने लगी। स्वयं उसका मन अत्यन्त दुखी था और रुंधे गले से ध्वनि न निकल रही थी। बड़ी कठिनाई से उसने हैलो कहा और शीघ्र रिसीवर रखकर अपने आंसुओं को रोकती हुई कमरे से निकल गई। टेलीफोन में पारस की ‘हैलो-हैलो’ की आवाज कुछ देर गूंजती रही।
अपने कमरे में आकर नीरा बिस्तर पर निढाल होकर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। आज पारस को जीवित रखने के लिए स्वयं उसने अपनी मृत्यु को आमन्त्रण दिया था, अपने घायल जीवन को तूफान की उड़ती हुई लहरों पर छोड़कर वह निढाल हो गई थी, उसकी एक ही इच्छा थी अब, और वह भी इस तूफान की लपेट में सदा के लिए खो जाने की, जीवन का उद्देश्य क्या था? परिस्थितियां स्वयं उसे एक अन्त की ओर खींच लाई थीं, और वह बेबस थी, उसकी नाव भी टूट चुकी थी और उसके हाथ में पतवार भी न थी।
|