ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘अंकल।’ वह अनायास एक पीड़ा के साथ कराह उठी और पीछे हटकर एकटक द्वारकादास की ओर देखने लगी। द्वारकादास अपना होंठ दबाए हुआ उसकी ओर देखने लगा और बोला—
‘हां नीरा! जो सुझाव मुझे न मिला—यह बात कहकर तूने मुझे बता दिया।’
‘नहीं, अंकल नहीं।’
‘विचित्र बात है—अकस्मात् यह सुन्दर अवसर मिल गया है। पारस भी है…मालाबार का जंगल भी है…और वे जंगली कुत्ते भी वहीं हैं…मेरा एक संकेत ही काफी है।’ वह मुस्कराया।
‘नहीं…यह आप क्या सोच रहे हैं।’ नीरा तड़पकर बोली।
‘दोनों का मार्ग साफ हो जाएगा।’
‘मैं आपको ऐसा कभी न करने दूंगी।’
‘मेरा रहस्य खोलकर…मुझे हत्यारा घोषित करके नीरू। दो हत्याओं का भी वही दण्ड है जो एक हत्या का—अपराधी केवल एक बार फांसी पर लटकता है…दो बार नहीं।’
द्वारकादास यह कहकर फिर पलटकर सेफ खोलने लगा। नीरा उसकी ओर बढ़ी और गिड़गिड़ाकर अनुरोध करने लगी—
‘अंकल। नहीं ऐसा न कीजिए…आपको मेरी सौगन्ध…मैं हाथ जोड़ती हूं—आपके पांव पड़ती हूं…।’ नीरा फूट पड़ी और उसने अपना सिर द्वारकादास के सीने पर रख दिया। द्वारकादास ने चुपचाप उसे रोता देख लिया और जब रो-रोकर उसकी घिग्घी बंध गई तो उसने प्यार से उसे थाम लिया।
‘भगवान के लिए…उनको वापस बुला लीजिये…मेरी रुखाई और मेरे पापों का दण्ड उन्हें मत दीजिए, इसके बदले में आप मेरे प्राण ले लीजिए चाहें ते…मैं उफ न करूंगी।’
‘किन्तु, तुम्हारा क्या विश्वास।’
‘यह अपने मन से पूछिए।’
‘तो विश्वास करूं—मेरा प्रेम मुझे वापस मिल जाएगा।’
‘मुझ पर दया कीजिए—मैं हार गई—यह शरीर इसके टुकड़े-टुकड़े नोंच लें, किन्तु।’
द्वारकादास ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया और उसे न बोलने देते हुए स्वयं कहने लगा, नीरू। मेरी अच्छी नीरू—मुझ पर विश्वास रखो…हमारा यह प्रेम मरने तक गुप्त रहेगा, न जाने क्यों मुझे इस प्यार ने दीवाना बना दिया कि मैंने तुम्हारा मन तोड़ा—तुम ही बताओ तुम्हारे सिवा इस दुनिया में मेरा कौन है, तुम्हारे चले जाने पर मैं किस प्रकार जी सकता हूं, किसके सहारे?’
‘अब जीना आपको नहीं, मुझे जीना है, मेरी विवशता की और हंसी मत उड़ाइए, कृपया उन्हें बुला लीजिए, तुरन्त बुला लीजिए उन्हें, प्लीज।’ उसके स्वर और उसकी दृष्टि में प्रार्थना थी।
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