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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘हां, हां—यदि ऐसा न होता तो आज यह झूठ दोष लगाकर मुझसे मेरी कही हुई बातों का बदला न लेते—मुझे विवश करने के लिए यह आपका आखिरी दांव है—किन्तु आप इस सिर को अपनी इच्छानुसार नहीं झुका पाएंगे…चाहे कुछ भी हो जाए।’ नीरा ने बिना रुका कहा।

‘तो जाओ—मेरी दुनिया से दफा हो जाओ।’ द्वारकादास आंखें लाल करते हुए चिल्लाया।

‘यों न जाऊंगी।’

‘तो?’

‘आपको उन पर लगाया हुआ यह आरोप वापस लेना पड़ेगा।’

‘यदि मैं ऐसा न करूं तो?’

‘मैं आपके घिनावने जीवन का रहस्य खोलकर समाज में आपको गिराने पर विवश हो जाऊंगी—आपकी यह झूठी शान मिट्टी में मिला दूंगी।’

‘यह मत भूलो कि मुझे समाज में गिराकर तुम्हारा अपना जीवन एक कालिख बनकर रह जाएगा—एक अमिट धब्बा—और प्यार के सपने जिनके लिए तुम आज मेरी दुनिया को लात मार रही हो, ये सब राख के ढेर हो जाएंगे।’

नीरा चुप हो गई। उसका हर हथियार द्वारकादास को चोट पहुंचाने से पूर्व ही स्वयं व्यर्थ हुआ जा रहा था। द्वारकादास ने उसकी बेबसी पर एक और ठहाका लगाया और उन कागजों को रखने के लिए सेफ की तरफ बढ़ा।’

`

‘तो आज आपकी हठ ने मुझे भी विवश कर दिया है—।’ नीरा ने धीमे स्वर में कहना आरंभ किया। द्वारकादास झट सेफ का किवाड़ बंद करके पलटा और नीरा को देखने लगा। नीरा ने वाक्य पूरा करते हुए कहा, ‘मैं आपका वह रहस्य प्रकाट कर दूं—जो आपके जीवन का सौदा…।’

‘नीरू।’ वह पुकार कर रह गया।

‘हां…अंकल, मेरा भी यह अन्तिम दांव है—और मैं भी विवश हूं।’

‘किन्तु, उसका कोई प्रमाण नहीं।’

‘प्रमाण प्राप्त करना पुलिस का काम है, मेरा काम नहीं अंकल।’ नीरा ने उसी के शब्द दोहराये और फिर बोली—‘खून छिपाए से भी नहीं छिपता।’

‘कैसा खून?’ वह बौखला गया।

‘आपके पुराने मैनेजर का जिसे आपने मालाबार के जंगलों में अपने पालतू कुत्तों से मरवा दिया।’

‘यह झूठ है।’

‘आपका पत्र अभी तक मेरे पास सुरक्षित है अंकल।’

‘द्वारकादास ने भूखी शेरनी की आंखों में झांका और दांत पीसकर अपनी उंगलियां तोड़ने लगा। उसे अनुमान न था की नीरा—इतना भयानक बदला लेने पर उतर आएगी। नीरा खड़ी उसकी भावनाओं का निरीक्षण करती रही। द्वारकादास गर्दन झुकाकर किसी गंभीर सोच में पड़ गया।

वह अन्तिम बार उसे देखकर जाने के लिए पलटी। अभी उसने पांव बढ़ाया था कि द्वारकादास ने झट पलटकर उसे बांह से पकड़कर पीछे खींच लिया। नीरा भय से कांप उठी, द्वारकादास के चेहरे पर क्रूर हंसी थी और उसकी आंखों में जलते हुए अंगारे।

‘नीरा। तुम्हारे इस अन्तिम दांव ने मेरे निश्चयों को निष्क्रिय कर दिया।’

‘फिर क्या विचार है?’ नीरा झटके से बांह छुड़ाते हुए बोली।

‘निश्चय राख हो गए—अब इस राख में एक फूल खिला है—आशा का फूल।’

‘आशा का।’

‘हां नीरू! जो प्यार मैं कभी मोल न खरीद पाया…वह स्वयं मेरी झोली में आ रहा है…मेरी हार जीत बन रही है।’

‘कैसे?’

‘तुम्हें विधवा बनाकर।’ द्वारकादास की आंखों में एक दहशत थी।

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