ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
क्लाक की टिक-टिक में समय बीतता जा रहा था, हर टिक-टिक के साथ उसके शरीर पर पसीने की बूंदें फूट आती यों ही लगभग दस मिनट और बीत गये। द्वारकादास के लिए यह प्रतीक्षा असहनीय हो रही थी। उसके मन में कई शंकाएं उठने लगीं। अचानक धीरे से सामने वाला किवाड़ सरका, एक धीमी-सी पांव की आहट हुई और फिर कपड़ों की सरसराहट…इसके साथ ही द्वारकादास के नथुनों में इस इत्र की भीनी सुगन्ध पहुंची जो रात की मस्ती को दोगुना करने के लिए वह नीरा को दे आया था। इस सुगन्ध की बास के लिए वह बड़ी देर से व्याकुल था…‘सो नीरा आ ही गई…उसकी अपनी नीरा…।’
द्वारकादास पलंग के सहारे की टेक लेकर बैठ गया। नीरू ने सफेद चमकदार रेशम के कपड़े पहन रखे थे…इस अंधेरे में वह एक चांदी की मूर्ति-सी प्रतीत हो रही थी। द्वारकादास ने धीरे से पुकारा—
‘नीरू…आओ मेरे पास।’
नीरा ने अपने कमरे वाला किवाड़ धीरे से बंद किया और खिड़की के पास खड़े होकर तूफान की भयंकरता को देखने लगी। द्वारकादास ने फिर पुकारा, किन्तु नीरा बिना कोई उत्तर दिए वहीं खड़ी रही। द्वारकादास कुछ देर वहीं सिमटा बैठा उसके आने की प्रतीक्षा करता रहा फिर हांफते हुए सांस को वश में लाते हुए नम्रता से बोला—
‘आओ नीरू…आ जाओ…मेरे निकट आओ…तुम मुझसे डर रही हो…, देखो समय बहुत बहुमूल्य है इसे नष्ट न होने दो…आओ मेरे सीने से लग जाओ…इस बहुत दिनों की तड़प को अपने मधुर अधरों के स्पर्श से दूर कर दो…विश्वास रखो…मैंने वचन दिया है…यह हमारी अन्तिम रात होगी…अन्तिम किन्तु, अत्यन्त सुन्दर—कभी न भूलने वाली रात…यह रात मेरे पास तुम्हारे प्यार की यादगार बनके रहेगी।
|