ई-पुस्तकें >> कटी पतंग कटी पतंगगुलशन नन्दा
|
7 पाठकों को प्रिय 38 पाठक हैं |
एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।
''बिल्कुल शेखर पर गया है। वह भी छुटपन में ऐसा ही था।'' शांति ने लाड़ से उसकी ओर देखते हुए कहा और उसे उठाकर बिल्ली के बच्चे को बाहर तक छोड़ने चली गई।
शेखर का नाम सुनते ही अंजना के दिल पर एक चोट लगी और वह चुपचाप सीढ़ियों की ओर बढ़ गई।
''बहू!''
बाबूजी की आवाज ने उसके कदम रोक लिए और वह पलट-कर उन्हें देखने लगी। उन्होंने इशारे से उसे पास बुलाया और चमड़े के बैग से नोटों का एक पुलिंदा निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले-''इन्हें संभालकर सेफ में रख दो। तराई वाली जमीन ठेके पर दे दी है। यह उसी की पेशगी रकम है।''
''लेकिन बाबूजी! इतनी बड़ी रकम! मैं तो बड़ी लापरवाह हूं।''
''शेखर की मां से कम ही होगी! फिर अब यह घर तो तुम्हें ही संभालना है। इस बुढ़ापे में भी क्या मुझे ही सब कुछ करना होगा!''
अब अंजना कोई उत्तर न दे सकी। उसने सावधानी से रुपया संभाल लिया। बाबूजी ने बताया कि पूरा दस हज़ार है। अंजना उसे लिए हुए ऊपर चली गई।
ज्योंही उसने सेफ खोला और यह रकम उसमें रखी, उसे बनवारी की धमकी का ख्याल आ गया जो उसने अभी-अभी नेहरू पार्क में दी थी। वह समझ गई कि बनवारी उसे अपना स्रोत बनाकर इस घर की दौलत लूटने का इरादा रखता है। वह इस ख्याल से ही कांप गई और उसने तुरत सेफ का ताला बंद कर दिया। फिर उसने पलट-कर देखा और घबराई हुई नजरों से इधर-उधर देखने लगी जैसे बनवारी की दुष्ट निगाहें अभी तक उसका पीछा कर रही हों। उसने किसी अनजाने भय से भयभीत होकर कमरे के सारे दरवाजे और खिड़कियां बन्द कर लीं और अपने-आपको संध्या के धुंधलके में छिपाकर एक कोने में बैठ गई और सिसकियां भरने लगी।
|