ई-पुस्तकें >> कटी पतंग कटी पतंगगुलशन नन्दा
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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।
अंजना बढ़ती जा रही थी और बनवारी के कानों में सूखे पत्तों पर चलने की चरमराहट गूंज रही थी। बनवारी को विश्वास था कि वह एक न एक दिन इस चिड़िया को सोने के पिंजरे-सहित ही ले उड़ेगा।
अंजना जब घबराई हुई घर लौटी तो सामने बाबूजी बैठे हुए मिल गए। उन्होंने उसे देखते ही पूछ लिया- ''इतनी देर कहां लगा दी बेटी?''
'यों ही जरा टहलने निकल गई थी झील के पास।''
''वह तो अच्छा किया तुमने, लेकिन जाना ही था तो शेखर की मां या रमिया को साथ ले लिया होता।''
''भूल हो गई बाबूजी!'' उसने रुकते-रुकते उत्तर दिया।
''भूल कैसी बहू!'' शांति ने बहू के आड़े आते हुए कहा और फिर पति से संबोधित हुई-''आप तो बहू को यों समझने लगे जैसे वह कल की बच्ची हो। ऐसी क्या आफत आ गई जो वह बाहर चली गई जरा! घर में बैठे-बैठे तो दम घुटने लगता है।''
''मुझे इससे कब इंकार है? मैंने तो बस इतना कहा है कि यों अकेली न जाती।''
दोनों शायद अभी और बहस करते, लेकिन राजीव ने दादा के पास आकर ऊधम मचा दिया।
वह बगीचे से बिल्ली का एक बच्चा उठा लाया था और हरेक को उसका खेल दिखा रहा था। जब वह मियाऊं-मियाऊं करता तो वह खिलखिलाकर हंसने लगता और उसके साथ ही सबके सब हंस पड़ते। यहां तक कि उसकी शरारत पर अंजना भी खिलखिला उठी। राजीव की हंसी ने पल-भर के लिए उसका गम भुला दिया और प्यार से उसके गाल पर चुटकी लेते हुए बोली-''शरारती कहीं का!''
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