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कटी पतंग
कटी पतंग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9582
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आईएसबीएन :9781613015551 |
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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।
''जी बाबूजी!''
''तो एक काम करो बेटी! तुम घर चली जाओ।''
''लेकिन यह सब...''
''यह सब हम कर लेंगे। शेखर की मां है, नौकर है, माली है, और फिर यह काम तुम्हें शोभा नहीं देता। हम जो हैं, जाओ बेटी।''
''और आप...?''
''हम तो आज व्रत मन्दिर में ही तोड़कर लौटेंगे। तुम जाओ। घर अकेला है और राजीव भी।''
शांति ने भी बहू से लौट जाने के लिए कहा। अंजना ने ठहरने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी। लालाजी यह नहीं चाहते थे कि उनकी बहू लोगों के सामने नंगे मुंह बैठे, वे लोग उसकी भरी जवानी के रणापे पर तरस खा-खाकर उसके दिल पर बरछियां चलाएं।
अंजना ने जाने से पहले दोनों के पांव छुए और आशीर्वाद लेती हुई मंदिर से बाहर चली गई। वह जब मन्दिर की सीढ़ियों से उतर रही थी तो उसे लगा जैसे हर कोई आंखें फाड़-फाड़कर उसे घूर रहा था। जाते जाते उसके कान में किसी औरत की आवाज आई-''बेचारी भरी जवानी में विधवा हो गई, लेकिन सास-ससुर पान-फूल की तरह संजोए हुए है और किसी काम को हाथ तक नहीं लगाने देते ताकि उसकी कोमल बांहें मैली न हो जाएं।''
कोई दूसरी बोल उठी-''इसकी यह साड़ी तो देखिए! है तो सफेद, लेकिन बड़ी कीमती है, रेशम से ज़्यादा मुलायम है!''
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