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कटी पतंग
कटी पतंग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9582
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आईएसबीएन :9781613015551 |
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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।
अंजना ने अपने कान उस प्रवचन की ओर से हटा लिए और तेजी से मन्दिर के दूसरे कोने में चली गई। वहां संगमरमर की जालीदार दीवार में भास्कर देवता झांक रहे थे। प्रकाश का जाल-सा बिछ रहा था। अंजना ने जब इस जाल में कदम रखा तो उसे लगा जैसे वह उजाला उसके दिल के अंधेरे कोनों को प्रकाशित करके सबके सामने उजागर कर देगा। वह उस उजाले को सह न सकी और फिर मंदिर के अंधेरे भाग में आ गई। सामने शिवजी की अनोखी मुद्रा की प्रतिमा थी। अंजना अपने चिंतित मन की व्याकुलता को दबाने का प्रयास कर रही थी, लेकिन जब वह किसी तरह उसे दबाने में असमर्थ रही तो शिवजी की मूर्ति के आगे माथा टेककर गिड़गिड़ाने लगी।
शांतिदेवी ने जब बहू की सिसकियां सुनीं तो झुककर प्यार से उसका हाथ चूम लिया और धीरज बंधाते हुए बोली-''न रो बहू! नसीब का लिखा आंसुओं से थोड़े ही मिट सकता है!
अंजना ने अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए मां की गीली आंखों की ओर देखा और उठकर मां के सीने से लिपट गई।
''मां! यह भगवान उन लोगों को क्यों दंड देता है जो किसी का मन नहीं दुखाते?''
''यह तो अपने कर्मों का फल है बेटी! मनुष्य ऐसी ही दाहक परीक्षाओं से तपकर कुंदन बनता है।''
किसी ने मन्दिर का घड़ियाल बजाकर उनके विक्षिप्त मन की वेदना की तन्मयता को भंग कर दिया।
सास-बहू ने एक-दूसरे को औरत के नाते से देखा और उस ओर चल पड़ीं जहां लगभग पचास ब्राह्मणों के लिए खाना परोसा जा रहा था।
लाला जगन्नाथ बड़ी सतर्कता से अपने पुरखों का बोझ उतार रहे थे। बहू को देखते ही बोले-''पूजा हो चुकी बहू?''
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