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कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581
आईएसबीएन :9781613012475

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कर्मों की सफलता का रहस्य


कुछ भी न माँगो, बदले में कोई चाह न रखो। तु्म्हें जो कुछ देना हो, दे दो। वह तुम्हारे पास वापस आ जाएगा; लेकिन आज ही उसका विचार मत करो। वह हजार गुना हो वापस आयेगा, पर तुम अपनी दृष्टि उधर मत रखो। देने की ताकत पैदा करो। दे दो और बस काम खत्म हो गया। यह बात जान लो कि सम्पूर्ण जीवन दानस्वरूप है; प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करेगी। इसलिए स्वेच्छापू्र्वक दो। एक न एक दिन तुम्हें दे देना ही पड़ेगा। इस संसार में तुम जो़ड़ने के लिए आते हो। मुट्ठी बाँधकर तुम चाहते हो लेना, लेकिन प्रकृति तुम्हारा गला दबाती है और तुम्हें मुठ्टी खोलने को मजबूर करती है। तु्म्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना ही पड़ेगा। जिस क्षण तुम कहते हो कि 'मै नहीं दूँगा', एक घूँसा पड़ता है औऱ तुम चोट खा जाते हो। दुनिया में आये हुए पत्येक व्यक्ति को अन्त में अपना सर्वस्व दे देना होगा। इस नियम के विरुद्ध बरतने का मनुष्य जितना अधिक प्रयत्न करता है, उतना ही अधिक वह दु:खी होता है। हममें देने की हिम्मत नहीं है, प्रकृति की यह उदात्त माँग पूरी करने के लिए हम तैयार नहीं है, और यही है हमारे दु:ख का कारण। जंगल साफ हो जाते हैं, पर बदले में हमें उष्णता मिलती है। सूर्य समुद्र से पानी लेता है, इसलिए कि वह वर्षा करे। तुम भी लेन-देन के यंत्र मात्र हो। तुम इसलिए लेते हो कि तुम दो। बदले में कुछ भी मत माँगो। तुम जितना ही अधिक दोगे, उतना ही अधिक तुम्हें वापस मिलेगा। जितनी ही जल्दी इस कमरे की हवा तुम खाली करोगे, उतनी ही जल्दी यह बाहरी हवा से भर जायगा। पर यदि तुम सब दरवाजे-खिड़कियाँ और रंध्र बंद कर लो, तो अन्दर की हवा अन्दर रहेगी जरूर, किंतु बाहरी हवा कभी अन्दर नहीं आएगी, जिससे अन्दर की हवा दूषित, गंदी और विषैली बन जायगी। नदी अपने आपको समुद्र में लगातार खाली किये जा रही है और वह फिर से लगातार भरती आ रही है। समुद्र की ओर गमन बंद मत करो। जिस क्षण तुम ऐसा करते हो, मुत्यु तुम्हें आ दबाती है।

इसलिए भिंखारी मत बनो। अनासक्त रहो। जीवन का यही एक अत्यन्त कठिन कार्य है। पर मार्ग की आपत्तियों के सम्बन्ध में सोचते मत रहो। कल्पना-शक्ति द्वारा आपत्तियों का चित्र खड़ा करने से भी हमें उनका सच्चा ज्ञान नहीं होता, जब तक हम उनका प्रत्यक्ष अनुभव न करें। दूर से उद्यान का विहंगम दृश्य दिख सकता है, पर इससे क्या? उसका सच्चा ज्ञान औऱ अनुभव तो अन्दर जाने पर हमें होता है। चाहे हमें प्रत्येक कार्य में असफलता मिले, हमारे टुकड़े हो जायँ और खून की धार बहने लगे, फिर भी हमें अपना हृदय थामकर रखना होगा। इन आपत्तियों में ही अपने ईश्वरत्व की हमें घोषणा करनी होगी। प्रकृति चाहती है कि हम प्रतिक्रिया करें; घूँसे के लिए घूँसा, झूठ के लिए झूठ और चोट के लिए भरसक चोट लगाएँ। पर बदले में प्रतिघात न करने के लिए, संतुलन बनाये रखने के लिए तथा अनासक्त होने के लिए परा दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है।

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