ई-पुस्तकें >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
भिखारी कभी सुखी नहीं होता। उसे केवल भीख ही मिलती है औऱ वह भी दया औऱ तिरस्कार से युक्त; उसके पीछे कम से कम यह कल्पना तो अवश्य ही होती है कि भिखारी एक निकृष्ट जीव है। जो कुछ वह पाता है, उसका सच्चा उपभोग उसे कभी नहीं मिलता।
हम सब भिखारी हैं। जो कुछ हम करते हैं, उसके बदले में हम कुछ चाह रखते हैं। हम लोग हैं व्यापारी। हम जीवन के व्यापारी हैं, शील के व्यापारी हैं, धर्म के व्यापारी हैं। अफसोस। हम प्यार के भी व्यापारी है।
यदि तुम व्यापार करने चलो, यदि वह लेन-देन का सवाल है, बेचने और मोल लेने का सवाल है, तो तुम्हें क्रय और विक्रय के नियमों का पालन करना होगा। कभी समय अच्छा होता है, कभी बुरा। भाव में चढ़ाव-उतार होता ही रहता है और कभी चोट खा जाने का अनुमान कर सकते हो। व्यापार तो आइने में मुँह देखने के समान है। तुम्हारा प्रतिबिम्ब उसमें पड़ता है। तुम मुँह बनाओ और आइने में मुँह बन जाता है। तुम हँसो औऱ आइना हँसने लगता है। यह है खरीद और बिक्री, लेन और देन।
हम फँस जाते हैं। कैसे? उससे नहीं जिसे हम देते हैं, वरन् उससे जिसके पाने की हम अपेक्षा करते हैं। हमारे प्यार के बदले हमे मिलता है दु:ख। इसलिए नहीं कि हम प्यार करते हैं, वरन् इसलिए कि हम बदले में चाहते हैं प्यार। जहाँ चाह नहीं है, वहाँ दु:ख भी नहीं है। वासना, चाह - यही दुखो की जननी है। वासनाएँ सफलता और असफलता के नियमों से बद्ध हैं। वासनाओं का परिणाम दु:ख ही होता है।
अतएव, सच्चे सुख और यथार्थ सफलता का महान् रहस्य यह है कि बदले में कुछ भी न चाहने वाला बिल्कुल नि:स्वार्थी व्यक्ति ही सबसे अधिक सफल व्यक्ति होता है। यह तो एक विरोधाभास सा है; क्योंकि क्या हम यह नहीं जानते कि जो नि:स्वार्थ है, वे इस जीवन मे ठगे जाते हैं, उन्हें चोट पहुँचती है? ऊपरी तौर से देखो, तो यह बात सच मालूम होती है। 'ईसा मसीह नि:स्वार्थी थे, पर तो भी उन्हें सूली पर चढा़या गया' -यह सच है; किन्तु हम यह भी जानते हैं कि उनकी नि:स्वार्थपरता एक महान् विजय का कारण है - और वह विजय है कोटि-कोटि जीवनों पर सच्ची सफलता के वरदान की वर्षा।
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