लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> कर्म और उसका रहस्य

कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581
आईएसबीएन :9781613012475

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

344 पाठक हैं

कर्मों की सफलता का रहस्य


अनासक्त बनने का अपना निश्चय हम प्रतिदिन दुहराते हैं। हम अपनी दृष्टि पीछे डालते है। और देखते हैं अपनी आसक्ति और प्रेम के पुराने विषयों की ओर, और अनुभव करते हैं कि उनमें से प्रत्येक ने हमें कैसे दु:खी बनाया, अपने 'प्यार' के कारण हम किस प्रकार निराशा के गर्त में गये, सदा दूसरों के हाथों गुलाम ही रहते आये और नीचे ही नीचे खिंचते गये। हम फिर से नया निश्चय करते हैं, 'आज से मै स्वयं पर अपना शासन करुँगा, मै अपना स्वामी बनूँगा।' पर समय आता है और फिर से एक बार वही पुराना किस्सा। हम फिर बन्धन में पड़ जाते है और मुक्त नहीं हो पाते। पक्षी जाल में फँस जाता है, छटपटाता है, फड़फड़ाता है। यही है हमारा जीवन।

मुझे इन कठिनाइयों का ज्ञान है; वे भयानक है। नब्बे प्रतिशत निराश हो धैर्य खो बैठते हैं। वे प्राय: निराशावादी बन जाते हैं और प्रेम तथा सच्चाई में विश्वास करना छोड़ देते हैं। जो कुछ दिव्य एवं भव्य है, उस पर से भी उनका विश्वास उठ जाता है। इसीलिए हम देखते हैं कि जो मनुष्य जीवन के आरम्भ में क्षमाशील, दयालु, सरल और निष्पाप थे, बुढा़पे में झूठे और पाखण्डी बन जाते हैं। उनके मन जटिलताओं से भर जाते हैं। संभव है कि उसमें उनकी बाह्म नीति हो। हो सकता है कि इनमें से अधिकांश लोग ऊपर से गरम मिजाज के न हों, वे कुछ बोलते न हों, पर यह उनके लिये अच्छा होता कि वे बोलते। उनके हृदय की स्फूर्ति मर चुकी है और इसीलिए वे नहीं बोलते। वे न तो शाप देते है और न क्रोध करते हैं; पर यह उनके लिए अधिक अच्छा होता, यदि वे क्रोध कर सकते, हजार गुना अच्छा होता, यदि वे शाप दे सकते। वे असमर्थ हैं। उनके हृदय में मृत्यु है, क्योंकि ठंडे हाथों ने उसको ऐसा जकड़ लिया है कि वह अब एक शाप देने या एक कड़ा शब्द कहने तक के लिए भी स्पन्दित नहीं हो सकता।

यह आवश्यक है कि हम इन सबसे बचें। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हमें परा दैवी शक्ति की जरूरत है। अतिमानवी शाक्ति पर्याप्त नहीं है। परा दैवी शक्ति ही छुटकारे का एकमेव मार्ग है। केवल उसी के बल पर हम इन उलझनों और जटिलताओं में से, आपत्तियों की इन बौछारों में से बिना झुलसे पार आ सकते हैं। चाहे हम चीर डाले जायें और हमारे चिथड़े-चिथड़े कर दिये जायँ, पर हमारा हृदय सर्वदा अधिकाधिक उदार ही होता जाना चाहिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book