ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
पाँच
ज्यों ही रामू ने चमड़े का बैग लिए ड्योढ़ी में प्रवेश किया उसके पाँव किसी की आवाज सुनकर रुक गए – वह राजन था, जो उसे धीमे-से पुकार रहा था। राजन अपना स्थान छोड़ रामू के समीप आ गया।
‘बाबा की तबीयत कैसी है?’ राजन ने धीरे से पूछा।
‘कुछ समझ में नहीं आता – हालत दिन-पे-दिन बिगड़ती जा रही है। डॉक्टर ने अपना बैग लाने को कहा था, जरा जल्दी।’
‘अच्छा!’
रामू अंदर गया तो राजन भी उस कमरे की खिड़की तक पहुँचा जिसमें बाबा बीमार पड़े थे। चारों ओर अंधेरा छा रहा था। खिड़की बंद थी, बत्ती का प्रकाश, शीशों को लाँघ बरामदे में आ रहा था। राजन ने एड़ियाँ उठा, एक कोने में खड़े होकर छुपकर अंदर की ओर देखा – पार्वती बाबा के समीप खड़ी थी। उसकी आँखों में आँसू थे। डॉक्टर ‘इंजेक्शन’ की तैयारी कर रहा था। मैनेजर हरीश व माधो एक कोने में खड़े थे। डॉक्टर ने धीरे से पार्वती को कुछ कहा और वह शीघ्रता से बाहर आ गई। राजन अंधेरे में दीवार के साथ लगकर खड़ा हो गया और पार्वती को देखने लगा, जो रसोईघर के किसी बर्तन में जल ले जा रही थी। राजन ने चाहा, कि उसे बुलाये, परंतु साहस न कर सका।
इंजेक्शन के पश्चात् जब डॉक्टर और दूसरे लोग बाहर जाने लगे तो राजन तुरंत ही बाहर चला गया ताकि उसे कोई देख न ले।
बरामदे में जब पार्वती डॉक्टर के हाथ धुला रही थी, तो हरीश ने पूछा - ‘डॉक्टर साहब! कैसी तबियत है?’
‘दिल पर कोई गहरा आघात हुआ है।’ डॉक्टर ने तौलिए से हाथ सुखाते हुए उत्तर दिया। पार्वती से कहने लगे -
‘क्यों बेटा, क्या कोई -’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई – ना जाने दो दिन से बार-बार पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते।’
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