ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘ड्योढ़ी तक!’ पार्वती ने घबराते हुए कहा।
‘हाँ, मैं भी तो इस अंधेरे में....’
‘परंतु बाबा साथ वाले कमरे में सो रहे हैं यदि जाग गए तो?’
‘घबराओ नहीं जल्दी करो।’ राजन का स्वर काँप रहा था। राजन फिर बोला - ‘समय नष्ट न करो – साहस से काम लो।’
‘अच्छा तुम चलो, मैं आई।’
राजन नीचे उतर आया और पार्वती चुपके से दरवाजे के पास गई, जो बाबा के कमरे में खुलता था, फिर अंदर झाँकी। बाबा सो रहे थे, पार्वती ने अपनी शाल कंधे पर डाली और कमरे से बाहर हो गई।
जब उसने ड्योढ़ी का दरवाजा खोला तो राजन लपककर भीतर आ गया और दरवाजे को दोबारा बंद कर दिया। दोनों एक-दूसरे के अत्यंत समीप थे। उसी समय पार्वती की कोमल बांहें उठीं और राजन के गले में जा पड़ीं। दोनों के साँस तेजी से चल रहे थे और अंधेरी ड्योढ़ी में दोनों के दिल की धड़कन एक गति से चलती हुई एक-दूसरे में समाती रही। बाहर हवा की साँय-साँय तथा भौंकते कुत्तों का शब्द आ-आकर ड्योढ़ी के बड़े दरवाजे से टकरा रहा था।
‘इतनी सर्दी में केवल एक कुर्ता!’ पार्वती उससे अलग होते हुए धीमे स्वर में बोली।
‘तुम्हारे शरीर की गर्मी महसूस करने के लिए। क्या बाबा ने मेरे बारे में तुमसे कुछ कहा है?’
‘नहीं तो।’
‘तुम मुझसे छिपा रही हो। क्या वह यह सब जान गए?’
‘हाँ राजन, जरा धीरज से काम लेना होगा।’
‘जानती हो इतनी रात गए मैं यहाँ क्यों आया हूँ?’
‘क्यों?’ पार्वती के स्वर में आश्चर्य था।
‘तुम्हारी आज्ञा लेने।’
‘कैसी आज्ञा?’
‘मैं साफ-साफ बाबा से कह देना चाहता हूँ कि हम-दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।’
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