ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘नहीं बाबा, वह ऐसा नहीं। किसी ने आपको संदेह में डाला है।’
‘मैं समझता हूँ, मुझे अधिक मेल-जोल पसंद नहीं।’
पार्वती ने आगे कोई बात नहीं की और निराश अपने कमरे में लौट गई। वह समझ न पाई कि आखिर किसने कहा और कहा भी तो क्या कहा?
दिन भर उसे राजन की याद सताती रही। वह मन में क्या सोचता होगा। वह किसी आशा से सुबह ही घर में आया था और चला भी चुपचाप गया। क्यों न मिल सकी वह उसे परंतु कोई उपाय भी तो न सूझता था। साँझ होते ही उसने बाबा से मंदिर जाने को पूछा परंतु वह न माने और प्यार से समझाने लगे। पार्वती ने बाबा की सब बातें सुनी पर ज्यों ही उसे राजन का ध्यान आता उसका ध्यान विचलित होने लगता।
दो दिन बीत गए परंतु पार्वती न सो सकी और न ही भरपेट भोजन कर पाई। इस बीच में न ही राजन आया और न ही कोई समाचार मिला।
तीन दिन बाद उसकी आँखें झपक गईं। उसने स्वप्न में राजन को रोते-कराहते देखा। भय से वह उठ खड़ी हुई। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसे ऐसे सुनाई पड़ा – जैसे कोई पुकार रहा हो। वह और भी घबराई, भयभीत-सी अंधेरे की ओर इधर-उधर देखने लगी। बाहर की खिड़की खुली थी। उसे लगा, मानों लोहे की सलाखों से कोई इधर-उधर झाँक रहा है। वही पुकार सुनाई दी। आवाज कुछ पहचानी सी मालूम हुई। पार्वती ने ध्यान से देखा, अरे यह तो राजन है। पार्वती को कुछ धीरज हुआ। वह बिस्तर से उठ दबे पाँव खिड़की की ओर बढ़ी। डर के मारे उसकी साँस अब भी फूल रही थी।
‘राजन! तुम इतनी रात गए?’ पार्वती ने धीमे स्वर में पूछा।
‘क्या करूँ मन को बहुत समझाया...’
‘यदि किसी ने देख लिया तो....।’
‘धीरज से काम लो और ड्योढ़ी तक आ जाओ।’
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