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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579
आईएसबीएन :9781613013069

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‘इसलिए आज से पहले मंदिर में लुटेरे न थे।’

बाबा का संकेत राजन समझ गया। क्रोध से मन ही मन जलने लगा परंतु अपने को आपे से बाहर न होने दिया। उसका शरीर इस जाड़े में भी पसीने से तर हो गया। वह मूर्तिवत बैठा रहा। बाबा उसके मुख की आकृति को बदलते देखने लगे।

‘क्यों यह खामोशी कैसी?’ बाबा बोले।

‘खामोशी, नहीं तो।’ और कुर्सी छोड़ राजन उठ खड़ा हुआ।

‘पार्वती से नहीं मिलोगे क्या?’

‘देर हो रही है, फिर कभी आऊँगा।’ इतना कह शीघ्रता से ड्योढ़ी की ओर बढ़ने लगा। बाबा ने उसे गंभीर दृष्टि से देखा और फिर आँखें मूँदकर माला जपने लगे।

पार्वती जो दरवाजे में खड़ी दोनों की बातें सुन रही थी, झट से बाबा के पास आकर बोली -

‘बाबा!’

बाबा ने आँखें खोलीं। माला पर चलते हाथ रुक गये। सामने पार्वती खड़ी उनके चेहरे की ओर देख रही थी। नेत्रों से आँसू छलक रहे थे। बाबा का दिल स्नेह से उमड़ आया। वह प्रेमपूर्वक उसे गले लगा लेना चाहते थे – परंतु उन्होंने अपने को रोका और सोच से काम लेना उचित समझा। कहीं प्रेम अपना कर्त्तव्य न भुला दे। पार्वती फिर कहने लगी –‘बाबा यह सब राजन से क्यों कहा आपने। वह मन में क्या सोचेगा?’

‘जो इस समय तुम सोच रही हो। आखिर मेरा भी तुम पर कोई अधिकार है।’

‘बिना आपके मेरा है ही कौन। फिर जो आपने कहा था वह मुझसे कह दिया होता, किसी दूसरे के मन को दुखाने से क्या लाभ?’

‘दूसरे ने तो मेरी इज्जत पर वार करने का प्रयत्न किया है।’

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