ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
प्रातःकाल सूरज की पहली किरण बाबा के आँगन में उतरी तो ड्योढ़ी का दरवाजा खुलते ही सबसे पहले राजन ने अंदर प्रवेश किया। बाबा उसे देखते ही जल उठे। बैठने का संकेत करते हुए बोले - ‘कहो आज प्रातःकाल ही।’
‘सोचा कि ठाकुर बाबा के दर्शन कर आऊँ।’
‘समय मिल ही गया – सुना है, आजकल हर साँझ मंदिर में पूजा को जाते हो।’
‘जी, शायद पार्वती ने कहा होगा।’
‘कुछ भी समझ लो।’
‘पार्वती तो ठीक है न?’
‘क्यों उसे क्या हुआ?’
‘मेरा मतलब कि आज उसे मंदिर में नहीं देखा।’
‘हाँ, उसने मंदिर जाना छोड़ दिया है।’
‘वह क्यों?’ राजन ने अचंभे में पूछा।
‘इसलिए कि उन सीढ़ियों पर पार्वती के पग डगमगाने लगे हैं।’
‘तो क्या वह अब मंदिर न जाएगी।’
‘कभी नहीं।’
थोड़ी देर रुककर बाबा बोले - ‘राजन तुम ही सोचो, अब वह सयानी हो चुकी है और मेरी सबसे कीमती पूँजी है। उसकी देखभाल करना तो मेरा कर्त्तव्य है।’
‘ठीक है, परंतु आज से पहले तो कभी आपने।’
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