ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘इसलिए कि आज से पहले मैं अनजान था।’
‘किससे?’
‘उस चोर से, जो मेरी आँखों के प्रकाश को मुझसे छीन लेना चाहता है।’
‘यह सब आज क्या कह रहे हैं आप?’
‘ठीक-ठीक कह रहा हूँ पार्वती, जो ज्योति मैंने अपने हाथों से जलाई है, क्या तुम चाहती हो कि वह सदा के लिए बुझ जाए?’
‘कभी नहीं, परंतु मैं समझी नहीं बाबा।’
‘मुझे केवल इतना ही कहना है कि कल शाम को पूजा घर पर ही होगी।’
और यह कहकर वह दूसरे कमरे में चले गए। पार्वती सोच में वहीं पलंग के किनारे बैठ गई। उसकी आँखें पथरा-सी गई। वह बाबा से यह न पूछ सकी कि क्यों? जैसे वह सब समझ गई हो, परंतु यह सब बाबा कैसे जान पाए। आज साँझ तक तो उनकी बातों से कुछ ऐसा आभास न होता था। उसके मन में भांति-भांति के विचार उत्पन्न हो रहे थे। जब राजन की सूरत उसके सामने आती तो वह घबराने-सी लगती और भय से काँप उठती। न जाने वह कितनी देर भयभीत और शंकित वहीं बैठी रही। कुछ देर में रामू की आवाज ने उसके विचारों का तांता भंग कर दिया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई। बाबा भोजन के लिए उसकी प्रतीक्षा में थे।
दूसरी साँझ पूजा के समय जब मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं तो पार्वती का दिल बैठने लगा। बाबा बाहर बरामदे में बैठे माला जप रहे थे और पार्वती अकेले मंदिर की घंटियों का शब्द सुन रही थी। उसके हाथों में लाल गुलाब का फूल था। रह-रहकर उसे राजन का याद आ रही थी। सोचती था शायद राजन मंदिर के आसपास उसकी प्रतीक्षा में चक्कर काट रहा होगा।
घंटियों की आवाजों के शब्द धीरे-धीरे बंद हो गये। चारों ओर अंधेरा छा गया परंतु पार्वती वहीं लेटी अपने दिल की उलझनों को सुलझाती रही।
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