ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
|
1 पाठकों को प्रिय 253 पाठक हैं |
हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘कहाँ चल दीं?’ राजन ने रुकते हुए पूछा और कहा, ‘देवता के पास फिर कब दर्शन होंगे?’
‘कल साँझ, परंतु तुम कब आओगे?’
‘जब तुम बुलाओगी।’
‘मुझसे मिलने नहीं, बाबा से मिलने।’
‘यूँ तो आज ही चलता, परंतु देर हो चुकी है।’
‘तो फिर कल।’
‘पहले तुम आना – तो फिर देखा जाएगा।’
पार्वती राजन का हाथ छोड़ सीढ़ियाँ चढ़ गई, राजन खड़ा उसे देखता रहा। जब वह दृष्टि से ओझल हो गई तो वह नीचे उतरने लगा। बाबा बहुत क्रोधित थे। उनकी पिंडलियाँ काँप रही थीं। पहले तो उन्होंने सोचा कि राजन को दो-चार वहीं सुना दें परंतु कुछ सोचकर रुक गए। उसके जाने के बाद वे तुरंत ही घर की ओर चल दिए।
अंधेरा काफी हो चुका था। बाबा अपने कमरे में चक्कर काट रहे थे। उनका मुख क्रोध से लाल था। उसी समय किसी के पाँव की आहट सुनाई दी और साथ ही पार्वती ने कमरे में प्रवेश किया। कमरे में अंधेरा था। उसने बिजली के बटन दबाए। प्रकाश होते ही वह सिर से पाँव तक काँप गई। आज से पहले उसने बाबा को कभी इस दशा में नहीं देखा था। उनकी आँखों में स्नेह के स्थान पर क्रोध था। उन्होंने पार्वती को देखा और मुँह फेरकर अंगीठी के पास जा बैठे।
‘आज यह अंधेरा कैसा है?’ पार्वती काँपते कंठ से बोली।
‘अंधेरा – ओह, परंतु तुम्हारे आने से तो प्रकाश हो ही जाता है।’
‘यदि मैं घर न लौटूँ तो अंधेरा ही होगा?’
‘इसलिए मेरी आँखों का प्रकाश तो तुम ही हो।’
‘वह तो मैं जानती हूँ, आज से पहले तो कभी आप।’
|