ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
वह सयानी हो चुकी है।’
‘इतनी जल्दी क्या है और फिर उसके लिए अच्छा-सा वर भी तो देखना होगा।’
‘तो अभी से देखना शुरु करिए – तूफान और यौवन का कोई भरोसा नहीं, किसी भी समय सिर से उतर सकता है।’
‘ठाकुर को किसी भी तूफान का भय नहीं।’
‘अनजान मनुष्य को अवसर बीतते पछताना पड़ता है।’
‘आखिर ऐसा तर्क तुम क्यो कर रहे हो?’
‘ठाकुर बाबा, आप यह तो अच्छी प्रकार जानते हैं कि मैं एक सच बोलने वाला मनुष्य हूँ जो सोचता हूँ मुँह पर कह देता हूँ।’
‘तो अब कहना क्या चाहते हो?’
‘यही कि पार्वती का यूँ अकेले साँझ को मंदिर जाना ठीक नहीं।’
‘इसमें बुरा ही क्या है?’
‘आपको यकीन है कि पार्वती मंदिर में है।’
‘तुम पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो, साफ-साफ कहो न।’
‘आजकल पार्वती के फूल देवता पर नहीं मनुष्य पर भेंट होते हैं।’
‘नामुमकिन – और देखो माधो! मैं अपनी पार्वती को तुमसे अधिक समझता हूँ। उसके बारे में अशुभ विचार सोचना भी पाप है, समझे?’ कहते-कहते बाबा आवेश में आ गए। उनकी साँस तेजी से चलने लगी।
‘आप तो यूँ ही बिगड़ गए, बातों में बात बढ़ गई। मुझे क्या लेना इन बातों से। अच्छा नमस्कार।’ और माधो ड्योढ़ी से बाहर निकल गया।
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