ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
और इसी प्रकार कुछ देर तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। ठाकुर बाबा ने पहले साँझ की चाय और दो अतिथियों की बहुत प्रशंसा की। उत्तर में माधो ने दो-चार शब्द हरीश की ओर से बाबा के कानों में डाल दिए।
बाबा ने जब चाय मँगाने को कहा तो वह उठकर बोला -
‘कष्ट न करें, बस आज्ञा...।’
‘ऐसी क्या जल्दी है?’
‘काम से सीधा इसी ओर चला आया था। जाड़ा अधिक हो रहा है। घर पर जलाने के लिए कोयला भा रास्ते से लेना है।’
‘परंतु चाय।’
‘यह तो अपना ही घर है, फिर कभी सही....’ नमस्कार करता हुआ माधो बरामदे से निकल गया। ड्योढ़ी तक छोड़ने के लिए बाबा भी साथ आए। माधो ने एक-दो बार मकान में दृष्टि घुमाई और बोला -
‘पार्वती कहाँ है?’
‘जरा मंदिर तक गई है।’
‘इस जाड़े में?’
‘साँझ की पूजा के लिए कैसी भी मजबूरी क्यों न हो, वह अपने देवता पर फूल चढ़ाने अवश्य जाती है।’
‘लगन हो तो ऐसी परंतु ठाकुर बाबा कहीं उसकी ‘लगन’ निश्चित भी है।’
‘पार्वती की लगन!’ बाबा ने आश्चर्यचकित हो पूछा, जैसे माधो ने कोई अनोखा प्रश्न कर दिया हो और फिर बोले - ‘माधो यह तुम क्या कह रहे हो? अभी तो उसकी उम्र ही कितनी है?’
‘वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो जाए आपकी आँखों में तो बच्ची ही रहेगी। परंतु अब उसके हाथ पीले कर दो,
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