ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘अकेले कि कोई साथी भी है?’
‘एक साथी है।’
‘वह कौन?’
‘प्रकृति।’
माधो राजन का उत्तर सुन हँस पड़ा और फिर खाट पर बैठ गया। राजन को उसका बैठना अच्छा नहीं लगा। बनावटी मुस्कुराहट लाते हुए बोला - ‘क्या दादा चाय पिओगे?’
‘क्यों नहीं, फिर आज के दिन कौन इंतजार करेगा?’
राजन यह सुनते ही बाहर आ गया और दो कप चाय होटल से लेकर वापस लौटा। दोनों चाय पीने लगे। राजन ने तीन-चार घूँट में ही प्याला पी डाला परंतु माधो, आनंद ले-लेकर पी रहा था। मन-ही-मन में राजन क्रोध में जल रहा था कि कब यह जाए और वह अपनी पुजारिन के पास पहुँचे। परंतु एक माधो था जाने का नाम न लेता था और कोई ऐसी बात शुरु कर देता, जो राजन को रोके रखती।
अंत में हारकर राजन ने उससे आज्ञा माँगी – माधो मुस्कुराते हुए खाट से उठा और बोला –
‘ओह! मैं तो भूल ही गया, तुम्हें घूमने जाना है, परंतु इस जाड़े में।’
‘आज जाड़ा और बर्फ ही मेरी साथी है।’
जब माधो चला गया तो राजन ने अपना ‘मिंटो वायलन’ उठाया और धीरे-धीरे पग रखता हुआ झट से बाहर हो लिया। चारों ओर किसी को न देख मंदिर की ओर बढ़ा। वह थोड़ी दूर गया होगा कि एक पेड़ के पीछे छुपा माधो बाहर निकला और उसके पीछे हो लिया। मंदिर की सीढ़ियों की थोड़ी दूर पर अचानक माधो रुक गया। पार्वती सीढ़ियो की ओर जा रही थी। बड़ी उत्सुकता से वह उसे देखने लगा। ऐसी बर्फीली और शीतल साँझ को। सारी ‘सीतलवादी’ में दो मनुष्य हैं जो अपने नियम तोड़ नहीं सकते। एक अपनी सैर को तथा दूसरी अपनी पूजा को।
माधो का संदेह एक वास्तविकता में बदल गया, फिर वह संदेह भरी दृष्टि से पार्वती के कदमों को देखने लगा जो बर्फ से ढकी सीढ़ियों पर चढ़ने से डगमगा रहे थे। अभी वह दो-चार सीढ़ियाँ भी न चढ़ने पाई थी कि किसी साज के बजने का शब्द सुनाई पड़ा। यह वायलन का ही शब्द था। पार्वती वहीं रुक गई और हाथ के फूल उन्हीं सीढ़ियों पर रख उस ओर बढ़ी। इतने में माधो आँख बचा उन सीढ़ियों तक जा पहुँचा और फूल अपने हाथों में उठा नीचे झाँक पार्वती की ओर देखने लगा जो दूर बर्फीली चादर पर बैठे राजन की ओर चली जा रही थी, राजन एक ढलान पर बैठा वायलन बजा रहा था। जब वह राजन के समीप पहुँच गई तो माधो ने पूजा के फूल उठाए और ‘सीतलवादी’ की ओर लौट गया।
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