ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
चार
आज छुट्टी का अलार्म समय से पहले ही बज गया, कंपनी का गेट खुलते ही मजदूर अपने-अपने घरों की ओर जल्दी-जल्दी जाने लगे। आज जाड़ा अधिक था। ‘सीतलवादी’ की ऊँची-ऊँची चट्टानें बर्फ से ढकी हुई थीं। सुबह की सुनहरी किरणें सफेद बर्फ को मानों चूम रही थीं और इस चुंबन के प्रभाव से बर्फ हुई जा रही थीं। धूप निकलने से हवा और ठण्डी लगती थी। जो सीतलवादियों को कंपाए जा रही थी। सर्दी से बचने के लिए लोगों ने मोटे-मोटे गर्म कोट पहन रखे थे।
मजदूरों की भीड़ को चीरता हुआ राजन भी शीघ्रता से अपने घर की ओर जा रहा था। परंतु लगता था, जैसे वह सबसे कुछ भिन्न है। प्रतिदिन की तरह आज भी वह एक कमीज में था, मानों वह सर्दी से मुक्त हो? समाधिस्थ-सा वह चला जा रहा था।
जब राजन ने अपने घर का दरवाजा खोला तो सामने खाट पर माधो को देख आश्चर्य में पड़ गया। आज माधो पहली बार ही उसके घर आया था। उसे चुप तथा आश्चर्य में देख माधो खाट से उठा और कहने लगा - ‘क्यों राजन जाड़ा कैसा है?’
‘मजेदार, यह बर्फीली चट्टान, यह सुंदर दृश्य। परंतु आप इस समय।’
मैंने सोचा... आज खुली हवा की बजाए बंद कमरे में ही हिसाब हो जाए तो कैसा रहे।‘’
‘अच्छा – परंतु काम तो आज कुछ हुआ ही नहीं – फिर हिसाब कैसा?’
‘बस घबरा उठे – मैं तो मजाक में कह रहा था। परंतु यह समझ में नहीं आता कि तुम काम से इस प्रकार घबराते क्यों हो?’
‘मैं और काम से – नहीं दादा, मैं काम से घबराने वाला नहीं।’
‘बस, छुट्टी के बाद जब हिसाब के लिए जाना होता है – तभी आपको जल्दी मचती है – क्यों कहीं जाना होता है?’
‘हाँ दादा! हर साँझ, मेरा मतलब साँझ की सैर मेरे जीवन का ऐसा अंग है, जिसे मैं सहज ही नहीं छोड़ पाता।’
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