ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
प्रातःकाल होते ही राजन मैनेजर के पास पहुँच गया-
वह पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था – उसे देखते ही बोला - ‘आओ राजन! मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था।’
फिर सामने खड़े एक पुरुष से बोला -
‘माधो! यह हैं वह युवक जिनकी बात अभी मैं कर रहा था!’ और राजन की ओर मुख फेरते हुए बोला - ‘राजन इनके साथ जाओ – ये तुम्हें काम समझा देंगे आज से तुम इस कंपनी में एक सौ रुपये वेतन पर रख लिए गए हो।’
‘मैं किस प्रकार आपका धन्यवाद करूँ?’
‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं – परंतु देखो – कार्य काफी जिम्मेदारी का है।’
‘इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं – मैं अच्छी प्रकार समझता हूँ।’ कहते हुए राजन माधो के साथ बाहर निकल गया।
थोड़ी दूर दोनों एक टीले पर जाकर रुक गए – माधो बोला -
‘राजन! यह वह स्थान है – जहाँ तुम्हें दिन भर काम करना है।’
‘और काम क्या होगा – माधो?’
‘यह सामने देखते हो – क्या है?’
‘मजदूर... सन की थैलियों में कोयला भर रहे हैं।’
‘और वह नीचे!’ माधो ने टीले के नीचे संकेत करते हुए पूछा।
राजन ने नीचे झुककर देखा – एक गहरी घाटी थी – उसके संगम में रेल की पटरियों का जाल बिछा पड़ा था।
‘शायद कोई रेलवे स्टेशन है।’
‘ठीक है – और यह लोहे की मजबूत तार, जो इस स्थान और स्टेशन को आपस में मिलाती है जानते हो क्या है?’
‘टेलीफोन!’
हँसते हुए कहा –‘नहीं साहबजादे! देखो मैं समझता हूँ।’
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