ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
आश्रम आदि देखने के बाद जब दोनों महात्मा के दर्शन के लिए चले तो महात्मा के चेलों ने उन्हें रोक दिया। महात्मा उस समय पूजा कर रहे थे। उस समय उन्हें कोई नहीं मिल सकता था।
दोनों अपना-सा मुँह लिए आश्रम से बाहर आ गए, सामने चौड़ी-चौड़ी चट्टानों की कतार देख वहाँ चलने का निश्चय किया। सफेद चट्टान ऐसी लग रही थीं जैसे संगमरमर का फर्श। पार्वती उछलती हुई वहाँ जा पहुँची और चप्पल उतार कर उन पर चलने लगी, ठण्डे पत्थरों पर चलते हुए वह एक अलौकिक आनंद अनुभव कर रही थी।
सामने खड़े राजन से बोली-
‘आओ देखो कैसा आनंद आ रहा है।’
‘तुम आनंद लो और मैं खाना खाता हूँ। मुझे तो भूख लगी है।’
‘तो क्या हम पत्थर खाएँगे।’
‘और नहीं तो आलू के परांठे?’
‘पार्वती यह सुनते ही राजन की ओर आई और डिब्बे से निकाले हुए परांठे उसके हाथ से छीन लिए। हाँ, आलू के परांठे....!’ और इतना कह राजन के पास जा बैठी।
दोनों मिलकर खाने लगे। भूख तो पहले ही दोनों को खूब लगी थी – फिर पार्वती के हाथ के परांठे... राजन उन पर टूट पड़ा। जब वह प्रशंसा करता तो पार्वती मन ही मन मुस्कुराती और उसके चेहरे की ओर मंत्रमुग्ध होकर देखने लगती। जब डिब्बा खाली हो गया तो राजन ने ऊपर देखा तो देखता रह गया।
पार्वती अभी पहला ही कौर लिए उसकी ओर देख रही थी।
राजन बोला - ‘तुम तो....!’
‘तुमने खा लिया तो समझो मैं भी खा चुकी।’
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