ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
|
1 पाठकों को प्रिय 253 पाठक हैं |
हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘वहाँ क्या रखा है... अँधेरा-ही-अँधेरा... परंतु.... तुम आज इधर कैसे आ निकले?’
‘आज जरा सामने पहाड़ों में उस आश्रम को देखने जा रहे हैं जिसके बारे में तुम कहा करते थे।’
‘परंतु इतनी दूर जाओगे कैसे?’
‘इसीलिए तो कहा था कि चट्टानों से जाने दो। यहाँ से करीब भी है।’
‘तुम समझते नहीं, वह रास्ता बहुत भयानक है। उसके पीछे बारूद भरा पड़ा है, यहाँ से जाने की किसी को आज्ञा नहीं।’
‘अच्छा भाई चार कदम और चल लेंगे।’
‘देखो एक तरकीब मुझे सूझी है।’
‘क्या?’
‘ठहरो...’ और थोड़ी दूर खड़े एक मनुष्य को कुछ समझाने लगा फिर दोनों को पास बुला उस मनुष्य को संग कर दिया। दोनों उसके पीछे-पीछे जाने लगे। तीनों एक ढलान उतर, रेल की पटरी के पास पहुँचकर रुक गए। छोटे-छोटे गाड़ी के डिब्बे पटरी पर चल रहे थे। राजन जो कोयला नीचे स्टेशन तक भेजता था वह इन्हीं डिब्बों द्वारा अंदर की खानों से स्टेशन तक पहुँचाया जाता था। उस मनुष्य ने उन्हें उन डिब्बों में बैठ जाने को कहा जो कोयला छोड़ खाली वापस लौट रहे थे। उसकी बात सुन दोनों असमंजस में पड़ गए और उसकी ओर देखने लगे।
‘हाँ – हाँ, घबराओ नहीं – इस रास्ते से तुम थोड़ी ही देर में पहाड़ी पार कर लोगे।’
पार्वती ने राजन की ओर देखा और फिर बोली -
‘परंतु...।’
‘शायद तुम डरने लगीं – अंधेरा अवश्य है, पर डर की कोई बात नहीं – हमारा तो प्रतिदिन का काम यही है।’
|