ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘ओह अब समझा!’ मैनेजर ने राजन की बात को काटते हुए कहा।
पार्वती मुस्कुरा दी।
‘शायद आज पहली ही बार इस ओर आई हो?’
‘जी... बाबा से कई बार कहा, परंतु वह टाल देते थे। आज राजन इस ओर आ रहा था, सोचा – मैं यह सब कुछ देखती ही आऊँ।’
‘अवश्य... बाबा ने मुझे ही कहला भेजा होता... खैर मैं तो आज काम में हूँ, कहो तो माधो को साथ भेज दूँ।’
‘आप कष्ट न करें – राजन जो साथ है।’
‘इसमें कष्ट काहे का और फिर राजन भी तो नया है।’
राजन पहले ही जला हुआ था, तुरंत बोल उठा -
‘मैनेजर साहब! जो आनंद खोज में है वह शायद प्राप्ति में नहीं।’ और फिर मैनेजर साहब से आज्ञा ले पार्वती के साथ ऊपर की ओर बढ़ गया।
मैनेजर और माधो खड़े ही देखते रह गए। जब वे दोनों दूर निकल गए तो मैनेजर माधो से बोला - ‘न जाने ठाकुर साहब को क्या सूझी कि उसे अकेले में यूँ भेज दिया – फिर दोनों का मेल ही क्या?’
‘मुझे भी दाल में कुछ काला मालूम होता है – देखने वाले अंधे नहीं। वह दोनों मिलकर दूसरों की आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं।’
मैनेजर चुप रहा – अब तक उसकी आँखें उन्हीं की ओर लगी हुई थीं और पार्वती का सुदंर चेहरा उसके सामने घूम रहा था।
राजन और पार्वती चट्टान के पास जाकर रुके, जहाँ कुंदन की ड्यूटी थी। कुंदन दोनों को देख बहुत प्रसन्न हुआ।
राजन ने कुंदन से पूछा –
‘भैया आज्ञा हो तो चट्टानों को अंदर से देख लूँ।’
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