ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘अच्छा जी? हो बड़े समझदार! बात बनाना तो कोई तुमसे सीखे। अच्छा तो तुम बाबा से बातें करो, मैं कपड़े बदलकर आई।’
थोड़ी ही देर में पार्वती एक सुंदर सी साड़ी पहने आँगन में आ खड़ी हुई। उसे देख दोनों मुस्कुरा दिए। जब बाबा ने भोजन को कहा तो दोनों ने कह दिया - ‘भूख नहीं है।’ बाबा भली-भांति जानते थे कि दोनों को प्रसन्नता के मारे भूख नहीं लग रही। अतः उन्होंने आलू के पराठे जबरदस्ती साथ झोले में डाल दिए, दोनों हँसते-कूदते पहाड़ियों की ओर चल पड़े। रास्ते में राजन ने अपने घर से ‘मिंटो वायलन’ भी साथ ले ली। इस साज को देख पार्वती का मन प्रसन्नता से नाच उठा।
राजन पार्वती को पहले उस स्थान पर ले गया, जहाँ वह काम करता था। मैनेजर व माधो वहाँ खड़े काम करवा रहे थे। आज तार पर नया टब लटक रहा था। कुछ बाहर से आए हुए लोग बिजली की तारें आदि लगा रहे थे। राजन नई मशीन को देख प्रसन्न हुआ और एक ओर खड़ा होकर सब कुछ पार्वती को समझाने लगा। पार्वती सुन तो कुछ न रही थी, केवल टकटकी बाँधे उसके चेहरे की ओर देख रही थी। राजन कुछ रुककर कहने लगा -
‘कुछ समझीं भी कि यूँ ही बोले जा रहा हूँ?’
‘हाँ राजन, सब कुछ सुन रही हूँ।’
‘बोलो, भला क्या समझीं?’
‘क्या.... समझी, यही कि तुम अच्छा बोल लेते हो। बोलने लगते हो तो माथे से पसीने की बूँदें गिरने लगती हैं।’ कहते-कहते पार्वती चुप हो गई परंतु राजन हँस पड़ा, पार्वती ने भी उसका साथ दिया।
अचानक दोनों चुप हो गए। राजन ने देखा, मैनेजर और माधो सामने खड़े हैं और इनकी बिना मतलब की हँसी सुन दोनों असमंजस में हैं। राजन ने दोनों को प्रणाम किया और उसके साथ पार्वती ने भी हाथ जोड़ दिए। मैनेजर पार्वती के समीप होकर नमस्कार का उत्तर देते हुए बोला - ‘शायद पूजा के दिन इन्हें देखा है?’
‘जी ठाकुर बाबा के साथ।’
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