ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
अचानक उसे कुछ सूझा और वह रुक गया। पार्सल एक मजदूर को देते हुए बोला - ‘इसे जरा मेरे घर छोड़ देना।’
राजन ने दोनों हाथों से तार के साथ लटके कड़े को मजबूती से कपड़ लिया सब मजदूर आश्चर्य में थे कि उसे सूझी। राजन थोड़ी देर में थैली की तरह नीचे जाने लगा। एक-दो मजदूर उसे रोकने को भागे भी परंतु वह हवा के समान निकल गया। नीचे गहरी और पथरीली घाटियाँ देख उसे घबराहट हुई और उसने अपनी आँखें मूँद लीं। जब उसने आँखें खोली तो अपने आपको एक रेल के डिब्बे में पाया। शरीर दर्द के मारे चकनाचूर हो रहा था। राजन ने हाथ में पकड़ा रजिस्टर माधो की ओर बढ़ाया – जो उसकी मूर्खता पर हँस रहा था।
हिसाब मिलने के बाद राजन सीधा मंदिर की ओर चल दिया।
अंधेरा हो चुका था, परंतु उसे आशा थी कि शायद पार्वती उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। परंतु जब वह वहाँ पहुँचा तो उसे निराश होना पड़ा। उसने चारों ओर देखा – पार्वती वहाँ नहीं थी, यह सोच कि शायद मंदिर में हो। जब वह सीढ़ियों पर चढ़ने लगा तो उसके कदम अकस्मात् सामने कुछ देखकर रुक गए।
सीढ़ियों पर लाल गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी हुई थीं और किसी ने लंबी प्रतीक्षा के बाद क्रोध में तोड़कर वहाँ फेंक दी थीं।
राजन, धरती की ओर झुका और प्रेमपूर्वक बिखरी कलियाँ चुनने लगा – बटोरकर घर की ओर चल पड़ा – असफलता की चोट से आहत-सा।
सारी रात वह सो न सका – ज्यों ही सोने की कोशिश करता, उसे पार्वती का ध्यान आ जाता। न जाने वह क्या सोचेगी? उसे रह-रहकर मैनेजर पर क्रोध आ रहा था।
उसके साथी आनंद से सो रहे थे – शायद उन्हें अगले दिन की छुट्टी की बहुत प्रसन्नता थी परंतु राजन की आँखों में नींद कहाँ।
जब आधी रात तक वह सो न सका तो बिस्तर को छोड़ उसने कलकत्ता से आया पार्सल खोला। थोड़ी देर बाद एक चमकदार ‘मिंटो वायलन’ बाहर निकालकर तार ठीक करने लगा। तार तो ठीक हुए पर मन में भरी व्यथा और आवेग वायलन के खिंचे तारों में फूट उठे। सारी रात वह वायलन बजाता रहा।
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