ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
प्रातःकाल उसे काम पर तो जाना नहीं था। वह स्नान आदि के पश्चात् शीघ्र ही बाबा के घर जा पहुँचा, पार्वती बरामदे में खड़ी बाबा से बातें कर रही थी, उसे देखते ही मुँह फेरकर अंदर चली गई। बाबा नमस्कार का उत्तर देते हुए बोले –‘राजन! तुम तो यहाँ का रास्ता ही भूल गए।’
‘नहीं बाबा, समय ही नहीं मिला।’
‘अब समय क्यों मिलने लगा, नया मकान कैसा है?’
‘बस सिर छिपाने को काफी है, अपनी कहिए, तबियत कैसी है?’
‘हमारी चिंता न किया करो बेटा! जैसी पहले थी, वैसी अब भी है – पार्वती की तो सुध लो।’
‘क्यों उसे क्या हुआ?’ राजन ने घबराते हुए पूछा।
‘होना क्या है, जब से तुम गए हो उदास रहती है। तुम थे तो बातों में समय कट जाता था, अब सारा दिन बैठे करे भी क्या?’
‘ओह! परंतु गई कहाँ? अभी तो....।’
‘शायद अंदर गई है?’
राजन ने एक-दो बार इधर-उधर देखा और फिर कमरे की ओर बढ़ा। पार्वती अंदर पलंग पर बैठी शून्य दृष्टि से द्वार की ओर देख रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लिया।
राजन समझ गया कि पार्वती नाराज है – परंतु वह उसे समझाएगा, उसकी विवशता सुनकर वह रूठेगी – फिर वह उसे मनाएगा। बोला - ‘अकेली बैठी क्या कर रही हो?’
‘नाव की सैर।’
‘वाह खूब, मुझे मालूम न था कि तुम हवा में भी नाव चला सकती हो।’
‘और मुझे भी क्या पता है कि तुम झूठे भी हो।’
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