ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
सुनकर पार्वती के मन में गुदगुदी-सी उठी और उसने मंदिर में प्रवेश किया। घंटियाँ बड़े जोरों से बज रही थीं। उसने मंदिर के अंदर वाले कमरे में जाकर पूजा की सामग्री एक ओर रख दी। फिर अलमारी से घुँघरू निकाल पैरों में बाँध लिए और उस गीत की धुन को मुँह से गुनगुनाने लगी, जिस पर उसे नृत्य करना था। वह उठी और किवाड़ के पीछे से मंदिर में बैठे लोगों को झाँकने लगी।
उसकी आँखें केवल राजन को देखना चाहती थीं परंतु वह कहीं भी दिखाई नहीं दिया। मैनेजर और उसके बाबा भी एक ओर बैठे पूजा की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब कहीं भी राजन न दिखाई पड़ा तो पार्वती उदास-सी हो गई। आखिर वह इतनी सजावट के बाद चला क्यों गया? वह तो कहता था कि नृत्य मैं अवश्य देखूँगा।
पार्वती को किसी के आने की आहट सुनाई दी। उसने पलटकर देखा, पुजारी सामने खड़ा था जो उसे देखते ही बोला -
‘क्यों पार्वती.... क्या देर है? पूजा का समय तो हो गया है।’
‘ओह! तो मैं अभी आई।’ पार्वती ने उत्तर देते हुए पूजा वाली थाली की ओर बढ़ी। जाते-जाते रुक गई और पुजारी से कहने लगी-
‘जानते हो, जिसने यह सारी सजावट की है वह कहाँ है?’
‘तुम्हारा मतलब राजन से.... वह तो चला गया।’
‘क्यों?’
‘मैं क्या जानूँ – कहता था कि पूजा के समय तक आ जाऊँगा।’
‘परंतु दिखाई तो नहीं दे रहा।’
‘भीड़ में न मालूम कहीं जा बैठा हो, तुम जल्दी करो।’
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