ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘हाँ बाबा।’
‘तब तो मंदिर की सजावट अभी देख आऊँ।’
‘न बाबा, ऐसी क्या जल्दी है – हमेशा देखने वाली वस्तु कुछ प्रतीक्षा के पश्चात् ही देखनी चाहिए।’
‘ऐसा लगता है जैसे तुम्हें आज ‘सीतलवादी’ को जगमगा देना हो।’
‘रात्रि आने के पहले क्या कहा जा सकता है?’
‘अच्छा भोजन करो। मैं रामू से पूजा की तैयारी करवा देता हूँ।’
‘थालियाँ साफ करनी होंगी। दीयों के लिए घी की बत्तियाँ और।’
‘तुम चिंता न करो, मैं सब कराए देता हूँ।’
बाबा ने रामू को पुकारा और पार्वती ने कमरे में प्रवेश किया। ज्यों-ज्यों सायंकाल का समय समीप आ रहा था, पार्वती का दिल बैठा जा रहा था। न जाने मंदिर में क्या हो रहा होगा। पुजारी अपने मन में मुझे गालियाँ दे रहा होगा। यदि राजन ने भी कुछ न किया तो शाम को बाबा क्या कहेंगे? इन्हीं विचारों में डूबी पार्वती सायंकाल की प्रतीक्षा करने लगी। इधर पूजा की सब सामग्री तैयार हो गई। उसने कई बार चाहा कि वह सब कुछ रामू द्वारा मंदिर में राजन को कहलवा भेजे, परंतु साहस न पड़ा।
आखिर साँझ हो गई।
ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ रहा था, त्यों-त्यों सीतलवादियों के मुख पर उल्लास की किरण चमकने लगी और लोग मंदिर की ओर चल पड़े। इधर पार्वती श्रृंगार में मस्त थी। आज उसने अपने को खूब सजाया परंतु उसका हृदय अज्ञात आशंका से धड़क रहा था, यदि मंदिर की सजावट न हुई तो वह बाबा को क्या उत्तर देगी।
आज तो बड़ी आशाएँ हृदय में लिए हुए मंदिर जाने की तैयारी कर रही थी। जब वह नृत्य के लिए देवताओं के सम्मुख आएगी और पास बैठा पुजारी उसे घूर-घूरकर ताकेगा तो क्या वह नृत्य कर सकेगी? यही विचार आ-आकर उसको खाए जाते थे।
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