ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘बाबा से जाकर कह देना, मंदिर की सजावट हो गई।’
‘झूठ बोलूँ?’
‘नहीं यह सच है।’
‘तो क्या मंदिर....’
‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो।’
‘तुम पर!’
‘विश्वास.... क्यों नहीं – अच्छा तो मैं चली। मंदिर अवश्य सजाना।’
‘मंदिर सजाते समय देवताओं से आशीर्वाद ले ही लूँगा।’
‘शायद तुम यह नहीं जानते कि जब तक मैं न जाऊँ, देवता किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते।’
‘और यदि हम आ गए और देवताओं ने अपने नेत्र मूँद लिए तो?’
‘देखा जाएगा।’ पार्वती ने बड़ी लापरवाही से कहा और घर की ओर भागी।
ज्यों-ज्यों घर करीब आ रहा था, पार्वती के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। वह भय से काँप रही थी, बाबा के सम्मुख इतना बड़ी झूठ कैसे बोलेगी? यह सोचते-सोचते घर तक वह पहुँच गई। ड्योढ़ी में कदम रखते ही चुपके से उसने झाँका। सामने कोई न था। वह शीघ्रता से आँगन पार कर अपने कमरे में जाने लगी। अभी वह किवाड़ के करीब पहुँची ही थी कि बाबा की पुकार ने उसे चौंका दिया – वह बरामदे में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘इतनी देर कहाँ लगा दी?’
‘स्नान को जो गई थी।’
‘स्नान में क्या इतनी देर।’
‘वहाँ से मंदिर भी तो जाना था।’
‘सीधी मंदिर से आ रही हो क्या?’
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