ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
नदी के शीतल जल में दोनों बेसुध खड़े एक-दूसरे के दिल की धड़कनें सुन रहे थे। पार्वती का शरीर आग के समान तप रहा था। ज्यों-ज्यों नदी की लहरें उसके शरीर से टकरातीं, भीगी साड़ी उसके शरीर से लिपटती जाती। राजन को इन लहरों पर क्रोध आ रहा था। उसने धीरे से पार्वती के कान में कहा - ‘शर्माती हो।’
‘अब तो डूब चुकी राजन!’
‘देखो तुम्हारा आँचल शरीर को छोड़कर लहरों का साथ दे रहा है।’
‘चिंता नहीं।’
‘तुम्हें नहीं, मुझे तो है।’
‘वह क्यों?’
‘कहीं फिर से मेरा सिर फोड़ने की न सोच लो।’
‘चलो हटो, निर्लज्ज कहीं के!’
‘पार्वती....!’
‘हूँ।’
‘तुम्हारे चारों ओर क्या है?’
‘जल ही जल।’
‘क्या इतना जल भी तुम्हारे शरीर की जलती आग को बुझा नहीं पाया?’
‘आग, कैसी आग?’
‘प्रेम की आग।’ और इसके साथ ही राजन, पार्वती के और भी समीप हो गया। राजन के गर्म-गर्म श्वासों ने पार्वती के मुख पर जमें जल कणों को मिटा दिया। पार्वती की आँखों में एक ऐसा उन्माद था, जो राजन को अपनी ओर खींचता जा रहा था। वह मौन खड़ी थी मानो उसे कोई होश न हो। उसके कोमल गुलाबी होंठ राजन के होंठों से मिल जाना चाहते थे परंतु मुख न खुलता था। राजन से न रहा गया, ज्यों ही वह अपने होंठ उसके करीब ले जाना चाहता था, वह चिल्लाई - ‘राजन!’
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