ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘हाँ कहो।’
‘शर्म लगती है’ उसने दाँतों में उंगली देते हुए उत्तर दिया।
बाबा उसके यह शब्द सुनकर जोर-जोर से हँसने लगे और रामू की ओर मुँह फेरकर कहने लगे -
‘लो रामू – अब यह स्त्रियों से भी लजाने लगी, पागल कहीं की, घाट अलग है, फिर भी यदि चाहती हो तो थोड़ी दूर कहीं एकांत में जाकर स्नान कर लेना।’
‘अच्छा बाबा! जाती हूँ, परंतु जब तक एकांत न मिला नहाऊँगी नहीं।’
‘जा भी तो – तेरे जाने तक तो घाट खाली पड़े होंगे।’
‘हाँ लौटूँगी जरा देर से।’
‘वह क्यों?’
‘मंदिर में रात को पूजा के लिए सजावट जो करनी है।’
‘और फल?’
‘पुजारी से कह रखे हैं।’
पार्वती ने सामने टँगी एक धोती अपनी ओर खींची – बाबा ने बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठकर इधर-उधर देखा और कहने लगे - ‘क्या राजन अभी तक सो रहा है?’
‘देखा तो नहीं – उसकी भी आज छुट्टी है।’ पार्वती ने धोती कंधे पर रखते हुए उत्तर दिया।
बाबा ने राजन को पुकारा – वह सुनते ही आँगन में आ पहुँचा, उसके हाथों में वही रात वाले फूल थे। पार्वती उसे देखते ही एक ओर हो ली।
राजन ने दोनों को नमस्कार किया।
‘मैं समझा शायद सो रहे हो।’
‘नहीं तो मंदिर जाने की तैयारी में था।’
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