ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘ओह शायद बाबा आ गए।’ पार्वती संभलते हुए बोली। ड्योढ़ी के किवाड़ खुलने का शब्द हुआ। राजन तुरंत अपने कमरे की ओर लपका। पार्वती ने अपनी ओढ़नी संभाली और बरामदे में लटके बंद चकोर को बाजरा खिलाने लगी। अब राजन कमरे से छिपकर उसे देख रहा था।
बाबा को देखकर पार्वती ने नमस्कार किया।
‘क्या अब सोकर उठी हो?’ बाबा ने आशीर्वाद देते हुए पूछा।
‘जी, आज न जाने क्यों आँख देर से खुली।’
‘पूजा का दिन जो था। गाँव सारा नहा-धोकर त्योहार मनाने की तैयारी में है और बेटी की आँख अब खुली।’
‘अभी तो दिन चढ़ा है बाबा!’ वह झट से बोली।
‘परंतु नदी स्नान तो मुँह अँधेरे ही करना चाहिए।’
‘घर में भी तो नदी का जल है।’
‘न बेटा! आज के दिन तो लोग कोसों पैदल चलकर वहाँ स्नान को जाते हैं। तुम्हारे तो घर की खेती है। शीघ्र जाओ। तुम्हारे साथ के सब स्नान करके लौट रहे होंगे।’
‘बाबा! फिर कभी।’
‘तुम सदा यही कह देती हो, परंतु आज मैं तुम्हारी एक न सुनूँगा।’
‘बाबा!’ उसने स्नेह भरी आँखों से देखते हुए कहा।
‘क्यों? डर लगता है?’
‘नहीं तो।’
‘तो फिर?’
बाबा का यह प्रश्न सुनकर पार्वती मौन हो गई और अपनी दृष्टि फेर ली, फिर बोली –‘बाबा सच कहूँ?’
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