ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
कुंदन आश्चर्यचकित खड़ा था कि राजन ने बंदूक की सतह पर दियासलाई को सुलगाया और अपने वस्त्रों में आग लगा दी। कुंदन चिल्लाया और लड़खड़ाते पत्थर का भांति नीचे जाने लगा। उसके कानों में भयानक हँसी गूँज रही थी – राजन की अंतिम हँसी।
जलते हुए राजन ने चट्टानों की उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें विषैली गैसें और बारूद भरा हुआ था।
कंपनी में हाहाकार मच गया, मजदूर अपनी जान बचाने के लिए पत्थरों की तरह लड़खड़ाते गिरते टकराते नीचे आ रहे थे। उनके ऊपर ऊँची चट्टानों के फटते हुए पत्थर नीचे गिर रहे थे। राजन के दिल को कुचलने वाले अरमान और सीने में सुलगने वाले आँसू एक-एक करके फूट रहे थे। कोलाहल से वायुमंडल गूँज रहा था, अंधेरा बढ़ता चला जा रहा था, ‘वादी’ की हजारों माताएँ अपने लालों को पुकार रही थीं।
प्रातःकाल जब ‘सीतलवादी’ को सूरज की पहली किरण ने छुआ तो एक बढ़ता हुआ जत्था खानों की ओर जा रहा था। चीख व पुकार के स्थान पर अब सबके मुख पर शांति के चिह्न दिखाई दे रहे थे। हर मनुष्य प्रसन्न प्रतीत होता था।
केशव यह देख शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरने लगा। सब लोग पागलों की तरह बढ़े जा रहे थे। केशव ने भीड़ में एक मनुष्य से कारण पूछा तो वह बोला - ‘बस बढ़ते जाओ – कंपनी को करोड़ो रुपये का लाभ होगा – लाखों मजदूर काम पर लग जाएँगे। वह हजारों की आबादी, लाखों की हो जाएगी और यह बस्ती एक बड़ी बस्ती बन जाएगी।’
केशव भी जत्थे के साथ हो लिया।
उसकी नजर लोगों के सिरों पर होती हुई पहाड़ी के दूसरी ओर निकलते हुए एक चश्मे पर रुकी। यह तेल का चश्मा था जिसकी खोज संसार वालों को एक अरसे से थी और जो खानों के फट जाने से अपनी गहराईयाँ छोड़ बाहर आ गया था।
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