ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
नौ
एक झुण्ड उस उबलते हुए ‘चश्मे’ के निकट खड़ा था, और उसके समीप एक ओर हट कर पार्वती निर्निमेष दृष्टि से उस ‘चश्मे’ को देख रही थी। माधो, चौबेजी और कई कंपनी के अफसर भी पास में ही खड़े थे। सबकी आँखों में आँसू थे। पार्वती के रुँधे कंठ से फूट पड़ा अस्फुट स्वर-
‘राजन! आखिर तुम्हारा असफल प्रेम... तुम्हारे मन की ‘जलन’, ‘तड़प’ संसार के लिए वरदान बन गई।’ कहकर कुछ देर के लिए एकटक चुपचाप उस चश्मे की ओर देखती रही। फिर अपने दोनों हाथ जोड़कर आकाश की ओर देखकर बोली-
‘हे जगदीश्वर! यह क्या हो गया? यह चश्मा है या राजन के कुचले अरमान!... सुलगते आँसू! जो आज ‘चश्मा’ बनकर इन चट्टानों की छाती चीरकर फूट निकले हैं?’ कहते-कहते उसकी आँखें छलछला आयीं।
तभी उसे लगा जैसे उसके अंतस्थल में बैठा कोई बोल उठा – हाँ पार्वती! यह सच है, यही प्रेम...अमर...है...प्रेम...उसके एकांत उत्सर्ग का साक्षी रहेगा... यह चश्मा! और सामने खड़ी वह मौन... जलती चट्टान।
।।समाप्त।।
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