ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
राजन आँखों में आँसू भरे देवता के सम्मुख जा खड़ा हुआ।
आज जीवन में पहली बार वह मंदिर में रो रहा था और उसका मस्तक भी पहली बार देवता के सामने झुका था। अचानक वह चौंक उठा और शून्य दृष्टि से देवता की ओर देखने लगा। देवता उसे हँसते हुए दिखाई दिए। इंसान तो इंसान भगवान भी आज उसका उपहास कर रहे हैं।
वह बेचैन हो उठा। उसी समय हॉल में उसे एक गूँज-सी सुनाई दी, शायद वह आकाशवाणी थी।
‘आओ... अब झूठे प्रेम का आसरा क्यों नहीं लेते, जिस पर तुम्हें अभिमान या भरोसा था – अब गिड़गिड़ाने से क्या होगा?’
उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई, वहाँ कोई न था। केवल हँसी और कहकहों का शब्द सुनाई दे रहा था।
उसे संसार की हर वस्तु से घृणा होती जा रही थी। ‘वादी’ का हर पत्थर एक शाप, चिमनी का उठा हुआ धुआँ एक तूफान, हर इंसान एक झूठ का पुतला और किरण जलती हुई अग्नि दिखाई देने लगी... मानों सारी ‘वादी’ एक धधकती हुई ज्वाला में स्वाहा हो रही है। वह इन्हीं विचारों में डूबा हुआ कुंदन के घर जा पहुँचा। कुंदन वहाँ न था। काकी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। राजन को देखते ही बोली, ‘जरा भीतर से लिहाफ तो उठा लाओ।’
वह चुपचाप अंदर चला गया। कमरे में कोई रोशनदान अथवा खिड़की न होने के कारण अंधेरा था। वह टटोलता-टटोलता अंदर बढ़ा और हाथों से लिहाफ उठाने लगा। अचानक उसने लिहाफ छोड़ दिया।
शैतान को इंसानियत से क्या? वह भीतर क्यों चला आया – उसे काकी से हमदर्दी क्यों? उसे किसी से क्या वास्ता?
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