ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘तुम्हें यह बातें शोभा नहीं देतीं – यह सब अंधविश्वास की बातें हैं, दिल की दुनिया इसे नहीं मानती।’
पार्वती भय के मारे दीवार से जा लगी।
राजन फिर उसकी ओर लपका – पार्वती क्रोध से चिल्लाई –
‘राजन मालिक से नहीं तो भगवान से डरो। यदि भगवान का भी कोई भय नहीं तो उस मासूम से डरो – जिसकी मैं माँ बनने वाली हूँ, आखिर तुम्हारी भी तो कोई माँ थी।’ माँ का नाम सुनते ही राजन खड़ा हो गया। उसने अपनी दृष्टि धरती में गड़ा दी। पार्वती अपने को संभालते हुए एक कोने में चली गई।
राजन अब पार्वती की ओर न देख सका। उसे अब उससे भय-सा लगने लगा। वह चुपचाप धीरे-धीरे पग उठाता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। अंतिम सीढ़ी पर रुककर एक बार मन-ही-मन पार्वती को प्रणाम किया और दबी आवाज में बोला-
‘धन्य हो देवी! क्षमा करो! तुम्हें मैं समझ न सका।’
राजन जब बाहर निकला तो बच्चों की एक भीड़ उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे इस हालत में देख सब हँसने लगे।
घर पहँचकर उसने कुछ आवश्यक वस्तुएँ एक बैग में डालीं – वह वहाँ से कहीं दूर चला जाएगा। वह आज पराजित हुआ था और एक निर्लज्ज की भांति वहाँ नहीं रहना चाहता था। अब उसके प्रेम में कलंक का धब्बा पड़ चुका था। उसने बैग उठाया और अंतिम बार घर की ओर देखा, फिर तुरंत बाहर निकल आया। आज वह सारी वादी से भयभीत था। उसने देखा दूर तक कोई न था। वह ‘सीतलवादी’ जाने वाले रास्ते पर हो लिया।
‘ज्यों-ही वह मंदिर की सीढ़ियों के पास से निकला, उसके पाँव वहीं रुक गए। न जाने क्या सोचकर उसने अपना बैग सीढ़ियों पर रख दिया और धीरे-धीरे मंदिर तक जा पहुँचा। मंदिर में कोई न था। शायद केशव भी किसी काम से बस्ती गया हुआ था।’
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