ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
जब वह पार्वती के घर पहुँचा तो घर में वह अकेली थी। उसे देखते ही वह झट से अंदर चली गई। जब वह सीढ़ियाँ चढ़ दरवाजे के समीप पहुँचा तो पार्वती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और बेचैन हो दरवाजे का सहारा ले खड़ी हो गई।
राजन बंद दरवाजे के समीप जाकर धीरे-से बोला-
‘पार्वती! सबके सामने मैंने आना ठीक न समझा। दुर्घटना पर मुझे बहुत दुःख है।’
पार्वती चुप रही। राजन दबी आवाज में फिर बोला-
‘शायद तुम मुझसे नाराज हो – किसी ने मौका भी तो नहीं दिया कि सब कुछ तुमसे कह सकूँ।’
‘मुझे कुछ नहीं सुनना। तुम यहाँ से चले जाओ।’
यह शब्द राजन के दिल में काँटो की तरह चुभे। उसे लगा जैसे किसी ने उसके माथे पर हथौड़ा मारा हो। वह फिर बोला - ‘पार्वती! तुम भी तो कहीं दूसरों की बातों में नहीं आ गईं।’
दरवाजा खोल पार्वती आँखों में खामोश आँसू लिए राजन को देखने लगी। ‘अब क्या रखा है यहाँ।’ वह टूटे हुए शब्दों में बोली -‘तुम्हारी अग्नि अभी बुझी नहीं, परंतु यहाँ तो सब कुछ राख हो चुका है।’
‘यह तुम क्या कह रही हो पार्वती?’
‘तुम्हें यदि अपने प्रेम पर इतना नाज था तो शादी की रात डोली को कंधा देने की बजाय मेरा गला घोंट दिया होता किसी दूसरे के घर तो आग न लगती।’ वह रोते हुए बोली।
‘तो तुम्हें विश्वास हो गया कि मेरा प्रेम केवल एक धोखा था।’
‘अब इन बातों को कुरेदने से क्या लाभ? अब मुझे अधिक न सताओ, मुझे किसी से कोई लगन नहीं – यहाँ से चले जाओ।’
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