ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
|
1 पाठकों को प्रिय 253 पाठक हैं |
हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘कुंदन तू समझता है मैं शायद इन पहाड़ी बटेरों से डर गया हूँ और यह मुझे चैन से न जीने देंगे – परंतु मुझे किसी का भी डर नहीं। यह लोग मुझे चाहे जितना बुरा क्यों न समझें परंतु पार्वती तो मुझे कभी गलत न समझेगी।’
‘राजन तुम भूल कर रहे हो – बुरा समय पड़ने पर छाया भी तो साथ नहीं देती।’
‘कुंदन, अभी तूने इस दिल को परखा नहीं। तू क्या जाने जब माधो मुझ पर बरस रहा था तो पार्वती के दिल पर क्या बीत रही थी परंतु बेचारी समाज के ठेकेदारों से सम्मुख कुछ बोल न सकी।’
‘राजन अब तुम इस संसार को छोड़ दूसरे संसार में जा पहुँचे हो, जिसे पागलों की दुनिया कहते हैं परंतु पागल होने से पहले थोड़ा विश्राम कर लो तो अच्छा ही होगा।’
यह कहते हुए उसने राजन पर कम्बल ओढ़ा दिया और बाहर जाने लगा। राजन उसे देखकर मुस्कुराया और बोला -
‘कुंदन यदि मैं पागल हूँ तो भी बुरा नहीं।’
कुंदन ने दरवाजे के दोनों किवाड़ बंद करने को खींचे और बाहर जाने से पहले बोला-
‘भई! मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि धरती पर रहने वाला जब पक्षियों को देख आकाश पर उड़ने का प्रयत्न करता है तो लड़खड़ाकर ऐसा गिरता है कि उसका रहना भी दूभर हो जाता है।’
उसके जाने के बाद राजन देर तक बंद दरवाजे को देखता रहा। उसके सामने बार-बार एक सूरत आती, जिसके चेहरे पर यह प्रश्न लिखा था कि अब उसका क्या होगा? फिर वह सोचने लगता कि वह भी तो मुझे गलत नहीं समझती, फिर वह पागल-सा हो उठता।
अंत में दोपहर को उठा और धीरे-धीरे वह मकान से बाहर आ हरीश के घर की ओर जाने लगा। ‘वादी’ में सिवाय बच्चों के कोई दिखाई नहीं देता था। सब अपने-अपने काम पर गए हुए थे।
|