ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
|
1 पाठकों को प्रिय 253 पाठक हैं |
हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘यह क्या?’
अभी तक
‘’उसके कानों में हरीश की वह भयानक चीख गूँज रही थी जो गिरते समय मुँह से निकली थी। वह चिल्लाया और शीघ्रता से नीचे उतर गया। हरीश का सिर फट चुका था। काले पत्थर रक्त से लाल हो रहे थे। शरीर इस बुरी दशा में घायल हो चुका था कि पत्थरों का दिल भी देखकर विवर्ण हो गया।
राजन एक पुलते की भांति चुपचाप ‘वादी’ की ओर बढ़ा जा रहा था, मानों कोई जीवित लाश जा रही हो। उसके मस्तिष्क में लाखों हथौड़े एक साथ चोट लगा रहे थे। उसके वस्त्र लहू से लथपथ हो रहे थे। आकाश पर उड़ती चीलें चारों ओर मंडराती-सी दिखाई दे रही थीं।
पार्वती ने जब आकाश पर चीलों के झुण्ड को मंडराते देखा तो भय से काँपने लगी और भागकर जंगले के पास जा खड़ी हुई। चौबेजी के आँगन में माधो उनसे बातें कर रहा था – समीप ही केशव बैठा था। पार्वती को देखते ही बाहर आ गया और नीचे से ही बोला -‘तुम्हें देखने ही आ रहा था।’
‘अच्छा हुआ तुम आ गए। अकेले में न जाने क्यों आज कुछ भयभीत-सी होने लगी हूँ।’
‘शायद आकाश पर कालिमा छाने से कहीं आँधी का जोर है।’
‘न जाने इतनी चीलें आकाश में क्यों मंडरा रही हैं।’
‘कहीं कोई जानवर मर गया होगा...।’ अभी वह कह भी न पाया था कि कंपनी की ओर से शोर-सा सुनाई दिया। चौबे और माधो भी आ गए और सब उस ओर देखने लगे।
शोर बढ़ता ही जा रहा था।
|