ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘और हाँ पार्वती आज मैं वापिस आ रहा था तो राजन के हाथ में एक बड़ा सुंदर फूल देखा – तुम्हारे लिए लाने को मन चाहा।’
‘लाल रंग का गुलाब होगा।’
‘तुमने कैसे जाना?’
‘उसे यह फूल बहुत अच्छा लगता है।’
‘परंतु जब मैंने उससे माँगा तो उसने अपने हाथों से मसल डाला।’
‘वह क्यों?’
‘कहने लगा यह फूल सुंदर है – इसमें सुगंध नहीं।’
हरीश ने देखा कि पार्वती सुनते ही उदास-सी हो गई है और किन्हीं गहरे विचारों में डूब गई है। उससे अपनी बाहों का सहारा दिया और बोला-
‘चलो पार्वती, साँझ हो गई, घर में अंधेरा है।’
दूसरे दिन हरीश जब दफ्तर गया तो न जाने क्यों पार्वती का दिल भय से धड़कने लगा। आज प्रातःकाल से ही उसका दिल बैठा जा रहा था। उसे लगता था जैसे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना होने वाली हो। वह माधो से, काका से और सब बस्ती वालों से डरने-से लगी। आज तो वह राजन से भयभीत हो रही थी।
परंतु राजन इन तूफानों और संदेह भरी दुनिया से दूर मुस्कुराता हुआ हरीश के साथ-साथ पहाड़ी पगडंडियों पर जा रहा था। आज दोनों अत्यंत प्रसन्न थे – मानों उन्हें आज अपनी मंजिल मिल गई हो। वह इसी धुन में मुस्कुराते बढ़े जा रहा था।
जब वह पहाड़ी के दूसरी ओर पहुँचे तो रस्से से पुल के समीप जा रुके। राजन ने दूसरी ओर वाली पहाड़ी की ओर हाथ से संकेत किया जहाँ से वे पत्थर मिले थे।
राजन मुस्कुराता हुआ पुल को पार कर दूसरी ओर जा रुका और हरीश को देखने लगा। हरीश रस्से का सहारा लिए धीरे-धीरे पुल से जा रहा था। अचानक हरीश का पाँव फिसला और दूसरे ही क्षण वह नीचे जा गिरा। राजन घबरा गया और किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा नीचे देखने लगा।
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