ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘काका!’ वह चिल्लाई और अधिक क्रोध में बोली – काका जो कहना है उसे पहले सोच लिया करो।
‘मैंने तो सोच-समझकर ही कहा है – और कुछ अपना कर्त्तव्य समझकर – क्या करूँ, दिन-रात लोगों की बातें सुन-सुनकर पागल हुआ जाता हूँ। कहने की हद होती है – तुम्हें भी न कहूँ तो किसे कहूँ।’
‘मैनेजर साहब से, उनके होते हुए मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं।’
‘उनकी मर्यादा भी तो तुम ही हो। जब लोग तुम्हारी चर्चा करें तो उनका मान कैसा? लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मैनेजर साहब दहेज में अपनी पत्नी के दिल बहलावे को भी साथ लाए हैं। और तो और, यहाँ तक भी कहते सुना है कि तुम अपने पति की आँखों में धूल झोंक रही हो – और राजन।’
‘काका!’ पार्वती चिल्लाई।
पार्वती कुछ देर मौन रही, फिर माधो के समीप होते हुए बोली -
‘तो काका, सब लोग यही चर्चा कर रहे हैं?’
‘मुझ पर विश्वास न हो तो केशव दादा से पूछ लो, और फिर राजन का तुमसे नाता क्या है?’
‘मनुष्यता का।’
‘परंतु समाज नहीं मानता और किसी के मन में क्या छिपा है, क्या जाने?’
‘मुझसे अधिक उनके बारे में कोई क्या जानेगा?’
‘परंतु धोखा वही लोग खाते हैं जो आवश्यकता से अधिक विश्वास रखते हैं।’ यह कहते हुए माधो चल दिया।
वह इन्हीं विचारों में डूबी साँझ तक यूँ ही बैठी रही। उधर हरीश लौटा तो उसे यूँ उदास देख असमंजस में पड़ गया, पूछने पर पार्वती ने अकेलेपन का बहाना बता बात टाल दी और मुस्कुराते हुए हरीश को कोट उतारने में सहायता देने लगी।
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