ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘तो कलुआ की घरवाली की गोद भरी है। वह जीभ होंठों में दबाते हुए बोली।’
‘हाँ, पुत्र हुआ है और आश्चर्य है कि ऐसी दशा में भी काम पर जाती है।’
‘तो आप उसे आने क्यों देते हैं?’
‘हम तो नहीं, बल्कि उसका पेट उसे ले आता है।’
‘कहीं तबियत बिगड़....।’
‘बिल्कुल नहीं – वह तो यूँ लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’
‘तो अभी तक आप अस्पताल में थे?’
‘नहीं तो, वहाँ से मैं व राजन दूर पहाड़ों की ओर चले गए थे।’
‘पहाड़ों में? यह शौक कब से हुआ?’
‘पार्वती वास्तव में हम किसी खोज में हैं। इन पहाड़ों में कहीं न कहीं तेल है। इसका पता मिल जाए तो मानों जीवन ही सफल हो जाए और सच पूछो तो इसमें अधिक हाथ राजन का है।’
‘वह क्या जाने इन बातों को?’
‘मेरे साथ रहते भी तो उसे आज तीन मास हो गए हैं। पत्थरों की पहचान तो उसे ऐसी हो गई है कि घंटों पहाड़ों में खोज करता रहता है, और हाँ, कल दोपहर वह मुझे ऐसे स्थान पर ले जा रहा है, जहाँ पत्थर शायद हमारा भाग् खोल दें।’
‘कौन-सा स्थान है वह?’
‘उस स्थान का तो मुझे अभी तक पता नहीं। राजन ने ही देखा है। वही कल मुझे ले जा रहा है।’
‘तो हमारे जाने के पश्चात् यहाँ कोई भूत आते हैं।’
‘हाँ तो’ और पार्वती हरीश के पास सरक गई।
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