ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
आठ
राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऊपर वाले कमरे में जा पहुँचा। भीतर जाते ही तुरंत रुक गया – पार्वती सामने खड़ी मेज पर चाय के बर्तन सजा रही थी। राजन को देखते ही मुस्कुराई और बोली-
‘आओ राजन!’
‘मैनेजर साहब कहाँ हैं?’ राजन ने पसीना पोंछते हुए पूछा।
‘आओ बैठो हम भी तो हैं, जब भी देखो मैनेजर साहब को ही पूछा जाता है।’
‘परंतु....।’
‘वह भी यहाँ हैं, क्या बहुत जल्दी है?’
‘जी वास्तव में बात यह है कि’ वह कहते-कहते चुप हो गया।
अभी वह जी भर देख न पाया था कि साथ वाले दरवाजे से हरीश ने अंदर प्रवेश किया। राजन कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ।
‘कहो राजन, सब कुशल है न?’
‘जी, परंतु वह जो कलुआ की बहू है न।’
उसी समय पार्वती सामने के दरवाजे से ट्रे उठाए भीतर आई।
‘तो क्या हुआ कलुआ की बहू को!’
‘बच्चा’, और यह कहते-कहते उसने शरमाते हुए आँखें नीचे झुका लीं।
‘बच्चा? वह तो अभी चार नम्बर में कमा रही थी।’
‘जी – काम करते-करते।’
‘तो इसलिए तुम बार-बार शरमा रहे थे – मैंने सोचा न जाने क्या बात है?’ पार्वती ने हाथ बढ़ाया और चाय का प्याला हरीश के समीप ले गई। हरीश बोला, ‘पहले राजन।’
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